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श्री-वीरवर्धमानचरिते
[८.१३इत्येषा दिकुमारीभिर्विधिना पर्युपासिता । तत्प्रमारिवाविष्टा बभौ त्यक्तोपमा सती ॥१३॥ नवमे मास्यथाभ्यणे अन्तर्वशी महागुणाम् । प्रज्ञाप्रकर्षसंप्राप्तां देव्यस्तामित्यरञ्जयन् ॥१४॥ निगूढार्थक्रियाशब्दै नाप्रश्नैमनोहरैः । प्रहेलिकानिरोष्ट्यायैः काव्यैः श्लोकैश्च धर्मदैः ॥१५॥ विरक्तो नित्यकामिन्यां कामुकोऽकामुको महान् । सस्पृहो निःस्पृहो लोके परात्मान्यश्च यःस कः ॥१६॥
(प्रहेलिका) दृश्योऽदृश्यमिचिद्भूषः प्रकृत्या निर्मलोऽन्ययः । हन्ता देहविधेर्देवोना यः क्व वर्ततेऽद्य सः ॥१७॥
(प्रहेलिका) भसंख्यनृसुराराध्यो दृश्योऽत्र त्रिजगद्गुरुः । जयतात्ते सुतोऽनेकैर्गुणैः सारैश्च सुन्दरि ॥१८॥
(निरोष्टयम् ) नित्यबीरागरक्तो यस्त्यक्तान्यचीसुखाशयः । सूनुस्ते जगतां नाथो नो रक्षतु गुणाकरः ॥१९॥
(निरोष्टयम् ) हरहर्यादिविश्वेषां मनोऽम्ब त्रिजगत्पतेः । गर्माधानेन दिव्येन जगतकल्याणकारिणि ॥२०॥
(क्रियागोपितम् ) भटाधुभूननाथानां तीर्थतां तीर्थधारिणे । धर्मतीर्थकरोस्पत्तेः स्वस्थ गर्भाजगद्विते ।।२१॥
(क्रियागोपितम् ) हितकृत्क इहामुत्र देवि योऽनन्तशर्मणे । बिजगद्धितकोंश्च कर्ता चिद्धर्मतीर्थयोः ॥२२॥
थीं ॥१२।। इस प्रकार उन दिक्कुमारी देवियोंके द्वारा विधिपूर्वक उपासना की गयी सती जिन-माताने उनके प्रभावसे व्याप्त होकर अनुपम शोभाको धारण किया ॥१३॥
_ अथानन्तर नवम मास के समीप आनेपर महागुणशालिनी, बुद्धि प्रकर्षधारिणी उस गर्भवती माताका मन देवियोंने गूढ़ अर्थ और गूढ़ क्रियापदवाले नाना प्रकारके मनोहर प्रश्नोंसे, प्रहेलिका (पहेलियाँ ) पूछकर, निरोष्ठय (ओठसे नहीं बोले जानेवाले वर्गोंसे युक्त) काव्य, और धार्मिक श्लोकोंके द्वारा इस प्रकारसे रंजायमान करना प्रारम्भ किया ॥१४-१५।। देवियोंने पूछा-हे माता, बनाओ-नित्य ही कामिनी जनोंमें आसक्त होकरके भी विरक्त है, कामुक होकरके भी अकामुक है और इच्छा-सहित होकर भी इच्छा-रहित है ? ऐसा लोकमें कौन श्रेष्ठ आत्मा है ? माताने उनके इस प्रश्नका उत्तर इस प्रश्नमें पठित 'परात्मा' पदसे दिया। अर्थात जो परमात्मा होता है, वह मक्ति स्त्रीमें आसक्त होते हए भी सांसारिक स्त्रियोंसे विरक्त रहता है ।।१६।। पुनः देवियोंने पूछा-~जो अदृश्य होकरके भी दृश्य है, रत्न त्रयसे भूषित होनेपर भी त्रिशूलधारक नहीं है, प्रकृतिसे निर्मल और अव्यय होनेपर भी देहकी रचनाका नाशक है, परन्तु वह महादेव नहीं है, ऐसा वह जीव अभी कहाँ रहता है ? इसका उत्तर इसो श्लोक-पठित 'देवोना' पदसे माताने दिया । अर्थात् वह देवरूपधारक मनुष्य तीर्थकर हैं ॥१७॥ हे सुन्दरि, असंख्य नर और सुर-आराध्य, दृश्य, त्रिजगद्गुरु अनेक सारवान् गुण-युक्त तेरा पुत्र है। (यह निरौष्ठ्य काव्य है, क्योंकि इस इलोकमें ओठसे बोले जानेवाला एक भी शब्द नहीं है) ॥१८॥ जो नित्य-स्त्री-राग-रक्त है, अन्य स्त्रीसुखका त्यागी है, ऐसा जगत्का नाथ तेरा गुणाकर सुत हमारी रक्षा करे। ( इस पद्यमें भी सभी निरौष्ठय अक्षर हैं ) ॥१९।। हे जगत्कल्याणकारिणि, मातः, त्रिजगत्पतिको अपने दिव्य गर्भमें धारण करनेसे हर, हरि आदि सर्व देवोंके मनकी रक्षा करो। (इस श्लोकमें 'अव' क्रिया छिपी होनेसे यह क्रियागत पद्य है)२०॥हे जगत-हितंकरि. अपने गर्भसे धर्म-तीर्थकरकी उत्पत्ति करनेके कारण तीर्थधारिणी तू देव, विद्याधर और भूमिगोचरी राजाओंका तीर्थस्थान बन ।।२१।। ( इस पद्यमें 'अट' यह क्रिया गुप्त है) । (प्रश्न-) हे देवि ! इस लोक और परलोकमें
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