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श्री-वीरवर्धमानचरिते
[७.११९तदानेकविमानैश्चाप्सरोमिः सुरसैन्यकैः । तत्पुरं परितो रुद्धं रेजेऽमरपुरं यथा ॥१९॥ जिनेन्द्रपितरौ भक्त्या ह्यारोप्य हरिविष्टरे । अमिषिच्य कनत्काञ्चनकुम्भैः परमोत्सवैः ॥१२०॥ प्रपूज्य दिव्यभूषास्त्रग्वस्त्रैः शक्राः सहामरैः । गर्भान्तस्थं जिनं स्मृत्वा प्रणेमुस्बिपरीत्य ते ॥१२१॥ इत्याद्यं गर्भकल्याणं कृत्वा संयोज्य सद्गुरोः । अम्बायाः परिचर्यायां दिक्कुमारीरनेकशः ॥१२२॥ आदिकल्पाधिपो देवैः समं शरुपायं च । परं पुण्यं सुचेष्टामि कलोकं मुदा ययौ ।। १२३॥ इति सुचरणधर्माच्छर्मसारं नुनाके निरुपममिह भुक्त्वा तीर्थकर्तावतीर्णः ।। शिवमतिसुखसिद्धयै चेति मत्वाश्रयध्वं ह्यमलचरणधर्म शर्मकामा जिनोक्तम् ॥१२४॥ धर्मोऽधर्महरः सुधर्मजनको धर्म श्रितास्तद्विदो धर्मेणव किलाप्यते जिनपदं धर्माय मुक्त्यै नमः। धर्मान्नास्त्यपरो जगत्सुशिवकृद्धर्मस्य हेतुः क्रिया धर्मे मां स्थितिवन्तमेव विधिभिहें धर्म मुक्तं कुरु ॥१२५॥ वीरो वीरबुधाग्रणीर्जितरिपुं वीरं श्रयन्ते बुधा वीरेणारिचयः सतां विघटते वीराय सिद्धयै नमः । वीरान्नास्त्यरिघातकोऽत्र सुभटो वीरस्य नित्या गुणा वीरे वीरतरं दधे निजमनो मां वीर वीरं सृज ।।१२६॥
इति भट्टारक-सकलकीति-विरचिते श्री-वीरवर्धमानचरिते
'भगवद्-गर्भावतार-वर्णनो नाम सप्तमोऽधिकारः ।।७।। शरीरके आभूषणोंके तेजसे दशों दिशाओंको उद्योतित करते, ध्वजा, छत्र, विमानादिसे गगनाङ्गणको आच्छादित करते और जय-जय नाद करते और बाजोंको बजाते हुए अपनी स्त्रियों और अपने देव-परिवारके साथ भगवान्के गर्भकल्याणकी सिद्धिके लिए उस उत्तम कुण्डपुर नगर आये ।।११६-११८॥
उस समय अनेक विमानोंसे, अप्सराओंसे और देव-सैनिकोंसे वह कुण्डपुर सर्व ओर से व्याप्त होकर अमरपुरके समान शोभित होने लगा ।।११९|| इन्द्रोंने तीर्थंकर भगवानके माता-पिताको भक्तिसे सिंहासनपर बैठाकर चमकते हुए सुवर्ण कलशों द्वारा परम उत्सवके साथ अभिषेक करके, दिव्य वस्त्र, आभूषण और मालाओंसे सर्व देवोंके साथ पूजा करके उन्होंने गर्भके भीतर विराजमान जिनदेवका स्मरण कर और तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार किया ।।१२०-१२१।। इस प्रकार गर्भकल्याणक करके और जगद्-गुरुकी माताकी सेवामें अनेक दिक्कुमारियोंको नियुक्त करके तथा परम पुण्य उपार्जन करके वह आदि कल्पका स्वामी सौधर्मेन्द्र उत्तम चेष्टावाले देवों के साथ हर्षित होता हुआ देवलोकको चला गया ॥१२२-१२३।।
इस प्रकार उत्तम आचरण किये गये धर्म के प्रभावसे मनुष्य और स्वर्गलोकमें अनुपम सारभूत सुखोंको भोगकर तीर्थंकर देवने अवतार लिया। ऐसा समझकर सुखके इच्छुक जन शिवगतिके सुखोंकी सिद्धिके लिए जिन-भाषित निर्मल चारित्र धर्मका आश्रय लेवें ॥१२४॥ धर्म अधर्मका हर्ता है और सुधर्मका जनक है, अतः सुधर्मके जानकार उस धर्मका आश्रय लेते हैं। धर्मके द्वारा ही निश्चयसे जिन पद प्राप्त होता है, अतः मुक्ति प्राप्ति के अर्थ धर्मके लिए नमस्कार है। जगत्में धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई सुखकारी नहीं हैं, धर्मका कारण चारित्र-आचरण है, अतः धर्म में स्थिति करनेवाले मुझे हे धर्म, तुम कर्मोंसे मुक्त करो।।१२५|| वीर भगवान् वीरों में ज्ञानियोंके अग्रणी हैं, अतः पण्डित लोग शत्रुओंके जीतनेवाले वीर भगवान्का आश्रय लेते हैं, वीरके द्वारा ही सन्तपुरुषोंका शत्रु-समूह विघटित होता है, अतः सिद्धि-प्राप्तिके अर्थ वीर प्रभुके लिए नमस्कार है। इस लोकमें वीरसे अतिरिक्त और कोई सुभट शत्रुओंका नाश करनेमें समर्थ नहीं है, वीर प्रभुके गुण नित्य हैं, मैं वीर भगवान्में अपने अति वीर मनको धारण करता हूँ, हे वीर भगवन् , मुझे वीर बनाओ॥१२६॥ इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकीति-विरचित श्री-वीरवर्धमान चरितमें भगवान्के
गर्भावतारका वर्णन करनेवाला सप्तम अधिकार समाप्त हुआ ॥७॥
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