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प्रथम अध्याय
हिन्दी भाषा टोका सहित ।
आर्य सधर्मा स्वामी का वर्णन करते हुए सूत्रकार ने “जाइसंपराणे” इत्यादि पदों का उल्लेख किया है । “जाइ संपन्ने"-जातिसम्पन्न" शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं । (१) जिस की माता में मातृजनोचित समस्त गुण विद्यमान हों, (२) जिप का मातपक्ष विशद्ध-निर्मल हो । इससे आर्य सुधर्मा स्वामी की जाति (मातप क्ष) की उत्तमता का निरूपण किया गया है । इसके अतिरिक्त सूत्रगत “वण्ण श्रो-वर्णक" पद से ज्ञाताधर्मकथांग सूत्रगत अन्य पाठ का समावेश करना सत्रकार को अभिप्रेत है । वह सूत्र इस प्रकार है
"......कलसंपन्ने, बल-रूप-विणय-णाण-दसण-चरित्त-लाघवसंपन्ने, ओयंसी, तेयंसी, बच्चंसी, जसंसी, जियकोहे, जियमाणे, जियमाए, जियलोहे. जियइंदिए, जियनिह, जियपरिसहे जीवियासमरण-भयविप्पमुक्के, तवप्पहाणे गणप्पहाणे एवं करण-चरण-निग्गह-णिच्छय-अज्जव-मद्दवलाघव--ग्वंति-गुत्ति-मुत्ति-विज्जामंत-बंभ वय-नय-नियम-सच्च-सोय-णाण-दसण-चारत्ते ओराले घोरे घोरव्वए घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढ़-सरीरे संखित्त-विजलतेउल्लेसे'......,,
"चादसपुव्वी-चतुर्दशपूर्वी" इस पद से सूचित होता है कि आर्य सधर्मा स्वामी चतुर्दश पूर्वो के पूर्ण ज्ञाता थे ? श्री नन्दी सूत्र में चतुर्दश पूर्वो के नामों का निर्देश इस प्रकार किया है
__"उप्पायपुव्वं (१) अग्गागीयं (२) वो रयं (३) अत्थिनस्थिप्पवायं (४) नाणप्पवायं (५) सच्चप्पवायं (६) आयपवायं (७) कम्ममवायं (८) पच्च खाणप्पवायं (९) विज्जाणुप्पवायं (१०) अवज्ज (११) पाणाऊ (१२) किरिया-विसोल (१३) लोक विंदुसारं ३ (१४) ।
(नन्दी सूत्र, पूर्वगत दृष्टिवाद-विचार)
भावार्थ (२) उत्पादपूर्व- इस पूर्व में सभी द्रव्य और सभी पर्यायो के उत्पाद को लेकर प्ररूपणा की गई है।
(१) छाया- कुलसम्पन्नः बल-रूप-विनय-ज्ञान-दर्शन-चरित्र-लाघवसम्पन्नः प्रोजस्वी तेजस्वी वचस्वी (वर्चस्वी) यशस्वी जितकोधः जितमानः जितमायः जितलोभः जितेन्द्रियः जितनिद्रः जितपरिषहः जीविताशामरणभय-विप्रमुक्तः तपःप्रधानः गुणप्रधानः एवं करणचरणनिग्रह-निश्चया-र्जव -मार्दव लाघव-क्षान्ति-गुप्तिमुक्ति-विद्यामंत्र-ब्रह्म-व्रत-नय-नियम-सत्य-शौच ज्ञान-दर्शन चरित्रः उदार: घोर: घोरव्रत: घोरतपस्वी घोरब्रह्मचर्य वासी उज्झितशरीर : संक्षिप्त-विपुलतेजोलेश्य: ........
(२) छाग-उत्पादपूर्वम् १ अग्रायणीयम् २ वीर्य ३ अस्तिनास्तिप्रवादम् ४ ज्ञान-प्रवादम् ५ सत्य-प्रवादं ६ अात्म-प्रवादम् ७ कर्म--प्रवादम् ८ प्रत्याख्यान-प्रवादम् ९ विद्यानप्रवादम् १० अवन्ध्यम् ११ प्राणायु: १२ क्रियाविशालम् १३ लोकबिंदुसारम् ।
(३) कलिकाल सर्वज्ञ प्राचार्य प्रवर श्री हमेचंद्र जी ने अभिधान-चिन्तामणि ग्रन्थ-रत्न के देव नामक द्वितीय-काण्ड में जो चतुर्दश पूर्वो का उल्लेख किया है वह निम्न प्रकार से है
पूर्वाणि चतुर्दशापि पूर्वगते ॥ १६० ।। उत्पादपूर्वमाग्रायणीयमथ वीर्यतः प्रवादं स्यात । अस्तानात् सत्यात् तदात्मनः कर्मणश्च परम् ।। १६१ ॥ प्रत्याख्यानं विद्या-प्रवाद-कल्याण-नामधेये च । प्राणावायं च क्रियाविशालमथ लोकबिन्दुसामिति ॥१६२॥
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