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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय हिदी भाषा टीका सहित । [७०३ जितशत्रु वहां का राजा था। उस ने धर्मवीर्य अनगार को प्रति लाभित किया । यावत् सिद्धपदमोक्षपद को प्राप्त किया । ॥ नवम अध्ययन समाप्त ।। टीका - अष्टम अध्ययन के अनन्तर नवम अध्ययन का स्थान है। नवम अध्ययन की प्रस्तावना को सूचित करने के लिये सूत्रकार ने- उक्खेव- यह पद दे डाला है । उत्क्षेप पद से अभिमत प्रस्तावनारूप सूत्रांश-जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरण जाव सम्पत्तरोण सुरविवागाण अठुमरस अज्मयणस्स अयम? पराणत्त, नवमस्स ण भंते ! अज्झयणस्स समणेण भगवया महावीरेण जाव सम्पत्तण के अट्टे पराणते?, अर्थात् यदि भदन्त ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के अधम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है तो भगवन् ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण मगवान् महावीर ने सुविपाक के नवम अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? - इस प्रकार है। प्रस्तुत अध्ययन के पदार्थ में चरित्रनायक का नाम महाचन्द या महचन्द्र है । यह महाराज दत्त का पुत्र और रक्तवती का आत्मज तथा युवराज पद से अलंकृत था। इस का ५०० श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ विवाह हुआ था । इस की पटरानी का नाम श्री कान्तादेवी था । पूर्व भव में यह चिकित्सिका नगरी का जितशत्रु नामक राजा था। प्रजापरायण होने के अतिरिक्त यह धर्मपरायण भी था । इस ने धर्मवीर्य नाम के एक अनगार को श्रद्धापूर्वक आहारदान दिया । उस के प्रभाव से यह इस चम्पानगरी में महाचन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ । जब तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी चम्पा के पूर्णभद्र उद्यान में पधारे तो महाचन्द्र ने श्रावक के बारह व्रतों का नियम ग्रहण किया, इत्यादि मोक्षपर्यन्त सम्पूर्ण वृत्तान्त प्रथम अध्ययन गत सुबाहुकुमार के वर्णन के समान ही समझना चाहिए । केवल नाम और स्थानादि का अन्तर है। अन्त में यह इसी भव में सिद्ध गति को प्राप्त हो जाता है। निक्षेप-शब्द का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह पृष्ठ १८८ पर किया जा चुका है । प्रस्तुत में निक्षेप शब्द से अभिमत सूत्रपाठ निम्नोक्त है -एवं खलु जम्बू ! समणेण भगवया महावीरेण जाव सम्पत्तण सुहवि वागाण नवमस्त अझयणस्त अयम पराणत्ते, सिबेमि-अर्थात् आर्य सुधर्मा स्वामी फरमाने लगे कि हे जम्बू ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के नवम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है। मैंने जैसा भगवान् से सुना था वैसा तुम्हें सुना दिया है। इस में मेरी अपनी श्रोर से कोई कल्पना नहीं की गई है। -पाणिग्गहण जाव पुठवभवो-तथा-पडिलाभिते जाव सिद्धे- यहां पठित जावयावत् पद से संसूचित पदार्थ पीछे पृष्ठ ७०१ पर लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना ही है कि वहां श्री भद्रनन्दी का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में श्री महाचन्द्र कमार का। तथा वहां भद्रनन्दी के नगर का, माता पिता का, उस के पूर्वभवगत नामादि का उल्लेख है, जब कि यहां महाचन्द्र के नगर का, माता पिता का, तथा महाचन्द्र के पूर्वभवीय नाम आदि का। सारांश यह है कि नामगत भिन्नता के अतिरिक्त अर्थगत कोई भेद नहीं है। प्रस्तुत अध्ययन में भी सुपात्रदान को सर्वोत्तम प्रमाणित करने के लिये एक धार्मिक आख्यान की संक्षिसरूप से संकलना की गई है। यह नवम अध्ययन का पदार्थ है। ॥ नवम अध्ययन समाप्त ॥ For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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