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प्राकथन ]
हिन्दी भाषाटीकासहित
(६१)
अर्थात् कहां मैं पशुसदृश अज्ञानियों का भी अज्ञानी महामृढ और कहां वीतराग प्रभु की स्तुति ? तात्पर्य यह है कि दोनों की परस्पर कोई तुलना नहीं है । मेरी तो उस पंगु जैसी दशा है जो कि अपने पांव से जंगलों को पार करना चाहता है। फिर भी श्रद्धामुग्ध - अत्यन्त श्रद्धालु होने के कारण मैं स्खलित होता हुआ भी उपालम्भ का पात्र नही हूं, क्योंकि श्रद्धालु व्यक्ति की टूटी फूटी वचनावली भी शोभा ही पाती है।
नामकरण
विपाक की प्रस्तुतीका का नाम “ श्रात्मज्ञानविनोदनी" रक्खा गया है । अपनी दृष्टि में यह इसका अर्थ नामकारण । जो जीवात्मा सांसारिक विनोद में आसक्त न रह कर आध्यात्मिक विनोद की अनुकूलता में प्रयत्नशील रहते हैं तथा आत्मरमण को ही अपना सर्वोत्तम साध्य बना लेते हैं । उन के विनोद में यह कारण बने इस भावना से यह नाम रखा गया है। इस के अतिरिक्त दूसरी बात यह भी है कि यह टीका मेरे परमपूज्य गुरुदेव आचार्यप्रवर श्री आत्माराम जी महाराज के विनोद का भी कारण बने, इस विचार से यह नामकरण किया गया है । तात्पर्य यह है. कि पूज्य आचार्य श्री आगमों के चिन्तन, मनन और अनुवाद में ही लगे रहते हैं, आगमों का प्रचार एवं प्रसार ही उन के जीवन का सर्वतोमुखी ध्येय है । उन की भावना है कि समस्त आगमों का हिन्दीभाषानुवाद हो जावे । उस भावना की पूर्ति में विपाकश्रुत का यह अनुवाद भो कथमपि कारण बने । बस इसी अभिप्राय से प्रस्तुत टीका का उक्त नामकरण किया गया है ।
टीका लिखने में सहायक ग्रन्थ
इस विपाकसूत्र की टीका तथा प्रस्तावना लिखने में ।जन २ ग्रन्थों की सहायता ली गई है, उन के नामों का निर्देश तत्तत्स्थल पर ही कर दिया गया है, परन्तु इतना ध्यान रहे कि उन ग्रन्थों के अनेकों ऐसे भी स्थल हैं जो ज्यों के त्यों उद्धृत किये गए हैं। जैसे पण्डित श्री सुखलाल जी का तत्वार्थसूत्र तथा कर्मग्रन्थ प्रथम भाग, पूज्य श्री जवाहरलाल जी म० की जवाहरकिरणावली की व्याख्यानमाला की पांचवीं किरण सुबाहुकुमार तथा श्रावक के बारह व्रत में से अनेकों स्थल ज्यों के त्यों उद्धृत किये गए हैं। जिन ग्रन्थों की सहायता ली गई है उन का नामनिर्देश करने का प्रायः पूरा २ प्रयत्न किया गया है, फिर भी यदि भूल से कोई रह गया हो तो उस के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ ।
आभारप्रदर्शन
सर्वप्रथम मैं महामहिम स्वनामधन्य श्री श्री श्री १००८ श्रीमज्जैनाचार्य श्री अमरसिंह जी महाराज के सुशिष्य मंगलमूर्ति जैनाचार्य श्री मोतीराम जी महाराज के सुशिष्य गणावच्छेदकपदविभूषित पुण्यश्लोक श्री स्वामी गणपतिराय जी महाराज के सुशिष्य स्थविरपदविभूषित परिपूतचरण श्री जयरामदास जी महाराज के सुशिष्य प्रवर्तकपदालंकृत परमपूज्य श्री स्वामी शालिग्राम जी महाराज महाराज के सुशिष्य परमवन्दनीय गुरुदेव श्री जैनधर्मदिवाकर, साहित्यरत्न, जैनागमरत्नाकर परमपूज्य श्री वर्धमान श्रमण संघ के आचार्यप्रवर श्री आत्मारामजी महारज के पावन चरणों का आभार मानता
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