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श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध
- धम्मजागरियं - धर्मचिन्तन के लिये किये जाने वाले जागरण को तथा इस पद मे सूत्रकार ने यह भी सूचित किया है जो काल भोगियों के सोने के आध्यात्मिक चिन्तन का होता है ।
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[ प्रथम अध्याय
धर्म जागरिका कहते हैं, का होता है वह योगियों
- प्रज्झत्थिते ५ - यहां पर उल्लेख किये गये ५ के अंक से - चितिए, कप्पिए, पत्थिए मणोगर संकप्पे - इन अवशिष्ट पदों का ग्रहण करना चाहिये । स्थूलरूप से इन का अर्थ समान ही है और सूक्ष्म दृष्टि से इन का जो अर्थविभेद है वह पृष्ठ १३३ पर लिखा जा चुका 1
- गामागर० जाव सन्निवेसा -यहां पठित जाव यावत् पद से- नगरकव्वड़मडंबखेड़दो मुहपट्टण निगम श्रासमसंवाहसंनिवेसा- - इन पदों का ग्रहण समझना चाहिए। ग्राम आदि पदों का अर्थ निम्नोत है
ग्राम गांव को अथवा बाड से वेष्टित प्रदेश को कहते हैं । सुवर्ण एवं रत्नादि के उत्पत्तिस्थान को प्राकर कहा जाता है। नगर शहर का अथवा कर - महसूल से रहित स्थान का नाम नगर है । खेट शब्द धूली के प्राकार के से वेष्टित स्थान - इस अर्थ का परिचायक है । अढाई कोस तक जिस के बीच में कोई ग्राम न हो — इस अर्थ का बोधक मडम्ब शब्द है । जल तथा स्थल के मार्ग से युक्त नगर द्रोणमुख कहलाता है । जहां सब वस्तुओं की प्राप्ति की जाती हो उस नगर को पत्तन कहते हैं। वह जलपत्तन - जहां नौकाओं द्वारा जाया जाता है तथा स्थलपत्तन - जहां गाड़ी आदि द्वारा जाया जाता है, इन भेदों से दो प्रकार का होता है । अथवा जहां गाड़ी श्रादि द्वारा जाया जाएं वह पत्तन और जहां नौका श्रादि द्वारा जाया जाता है वह पट्टन कहलाता है | जहां अनेकों व्यापारी रहते हैं वह नगर निगम, जहां प्रधानतया तपस्वी लोग निवास करते है वह स्थान श्राश्रम कहा जाता है। किसानों के द्वारा धान्य की रक्षा के लिये बनाया गया स्थलविशेष अथवा पर्वत की चोटी पर रहा हुआ जनाधिष्ठित स्थलविशेष अथवा जहां इधर उधर से यात्री लोग निवास एवं विश्राम करें उस स्थान को संवाह कहते हैं । सन्निवेश छोटे गांव का नाम है अथवा अहीरों के निवासस्थान का अथवा प्रधानतः सार्थवाह आदि के निवासस्थान का नाम संनिवेश है ।
- राईसर ० -- यहां दिए गए बिन्दु से - तलवर माडं बियकोडु' बिय सेट्ठिसेगाव सत्थवाहपभियउ - इस पाठ का ग्रहण समझना चाहिये । राजा प्रजापति का नाम है। सेना के नायक को सेनापति कहते हैं । श्रवशिष्ट ईश्वर आदि पदों का अथ पृष्ठ १६५ पर लिखा जा चुका है
- मुंडा जाव पव्वयंति - यहां पठित जाव यावत् पद से - भवित्ता श्रगाराउ श्रगारिय ( अर्थात् - दीक्षित हो कर अनगारभाव को धारण करते हैं ) – इन पदों का ग्रहण करना चाहिए । तथा - "पंचा तियं जाव गिहिधम्मं" इस में उल्लिखित जाव यावत् पद से - सत्तसिक्खावतियं दुवालविहंइस अवशिष्ट पाठ का ग्रहण जानना चाहिए। इस का अर्थ है-पांच अणुव्रत और सात शिक्षात्रत अर्थात् 'बारह प्रकार के व्रतों वाला गृहस्थधर्मे । धर्मशब्द के अनेकों अर्थ हैं, किन्तु प्रकृत में शुभकर्म - कुशलानुष्ठान,
(१) सुतामुखी सया, मुणिणो सया जागरन्ति । (आचारांग सूत्र, श्र० ३०, उद्द े० १) अर्थात् - सोना और जागना द्रव्य एवं भावरूप से दो तरह का होता है। हम प्रतिदिन रात में सोते
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हैं और दिन में जागते हैं, यह तो द्रव्यरूप से सोना और जागना है, परन्तु पाप में ही प्रवृत्ति करते रहना भाव सोना है और धार्मिक प्रवृत्ति करते रहना भाव जागना है । इस प्रकार जो अमुनि है - पापिष्ट हैं दुष्टवृत्ति वाले हैं वे तो सदैव सोए हुए ही हैं और जो मुनि हैं, सात्त्विक वृत्ति वाले हैं वे सदैव जागते रहते हैं। यही मुनि और श्रमुनि में अन्तर है, विशिष्टता है ।