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प्रथम अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
धन्य हैं वे ग्राम, नगर, देश और सन्निवेश आदि स्थान जहां पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का विचरना होता है। वे राजा, महाराजा और सेठ साहुकार भी बड़े पुण्यशाली हैं जो श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में मुडित हो कर दीक्षा ग्रहण करते हैं और जो उन के चरणों में उपस्थित हो पंचाणुव्रतिक गृहस्थधर्म को अंगीकार करते हैं, वे भी धन्य हैं । उन के चरणों में रह कर धर्मश्रवण का सौभाग्य प्राप्त करने वाले भी धन्य हैं तब यदि सद्भाग्य से अब के भगवान् यहां पधारेंगे तो मैं भी उन के पावन श्रीचरणों में उपस्थित हो कर संयमव्रत को अंगीकार करूंगा। .
सुबाहुकुमार का संकल्प कितना उत्तम और कितना पुनीत है ? यह कहने की आवश्यकता नहीं । तरणहार जीवों के संकल्प प्रायः ऐसे ही हुआ करते हैं, जो स्व और पर दोनों के लिये कल्याणकारी हो । हृदय के अन्दर जब सात्त्विक उल्लास उठता है तो साधक का मन विषयासक्त न हो कर श्रात्मानुरक्त होने का यत्न करता है और तदनुकूल साधनों को एकत्रित करने का प्रयास करता है । पौषधशाला के प्रशान्त प्रदेश में एकाप्र मन से धर्मध्यान करते हुए सुबाहकुमार के हृदय में उक्त प्रकार के संकल्प का उत्पन्न होना उस के मानव जीवन के सर्वतोभावी आध्यात्मिक विकास को उपलब्ध करने की पूर्वसूचना है । परिणामस्वरूप इस के अनुसार प्रवृत्ति करता हुआ वह अवश्य उसे प्राप्त करने में सफलमनोरथ होगा:
प्रश्न - श्री सबाहुकुमार ने यह विचार किया कि यदि भगवान् हस्तिशीर्ष नगर में पधारेंगे तो मैं उन के पास दीक्षित हो जाऊंगा। इस पर यह अशंका होती है कि सुबाहुकमार भगवान् के पास स्वयं क्यों न चला गया । अथवा उस ने भगवान् के पास कोई निवेदनपत्र ही क्यों न भेज दिया । जिस में यह लिख दिया होता कि मैं दीक्षा लेना चाहता हूं, अतः आप यहां पधारें ?
उत्तर-सुबाहुकुमार न तो स्वयं गया और न उस ने कोई प्रार्थनापत्र भेजा, इस के अदर भी कई एक कारण हैं । भला, एक परम श्रद्धालु व्यक्ति कोई ऐसा कृत्य कर सकता है जो सत्य से शून्य हो ? तथा निरर्थक हो ? सुबाहुकुमार समझता है कि यदि मेरी इस भावना पर भगवान् पधार जाए तो मैं समझ लूगा कि मैं दीक्षित होने के योग्य हूँ और यदि मेरे में दीक्षाग्रहण करने की योग्यता नहीं होगी तो मेरी इस भावना पर भी भगवान् नहीं पधारेंगे। कारण कि भगवान् सर्वज्ञ और सर्वान्तर्यामी हैं, वे जो कुछ भी करेंगे वे मेरे लाभ के लिये होगा। दूसरे शब्दों में भगवान् महावीर स्वामी के पधारने का अर्थ यह होगा कि मेरा मनोरथ सफल है, भवितन्यता मेरा साथ दे रही है और यदि भगवान न पधारें तो उस का वह अर्थ होगा कि अभी मैं दीक्षा के अयोग्य हूँ | सुबाहुकुमार के ये विचार महान् विनय के संसूचक हैं।
सुबाहुकुमार यदि अपने नगर को छोड़ कर अन्यत्र जा कर दीक्षा लेता तो उस का वह प्रभाव नहीं हो सकता था, जो कि वहां अर्थात अपने नगर में हो सकता है । एक राजकुमार का दीक्षा लेने की अभिलाषा से अन्यत्र जाने की अपेक्षा अपनी राजधानी में दीक्षित होना अधिक प्राभाविक है । राजकुमार के दीक्षित होने पर वहां की प्रजा पर जो प्रभाव हस्तिशीर्ष में हो सकता है वह अन्यत्र होना सम्भव नहीं है । इसीलिये सुबाहुकुमार भगवान् के पास नहीं गया । निवेदनपत्र के विषय में यह बात है कि सुबाहुकुमार को यह मालूम है कि भगवान् सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी हैं । तब सर्वज्ञ से जो प्रार्थना करनी है. वह श्रात्मा के द्वारा सुगमता से की जा सकती है और उसी के द्वारा ही करनी चाहिये । सर्वज्ञ के पास निवेदनपत्र भेजना, सर्वज्ञता का अपमान करना है और अपनी मूर्खता अभिव्यक्त करनी है। निवेदनपत्र तो छामस्थों के पास भेजे जाते हैं न कि सर्वेश के पास भी। बस इन्हीं कारणों से सुबाहुकुमार न तो भगवान् के पास गया और न उन के पास किसी के हाथ प्रार्थनापत्र भेजने को ही उस ने उचित समझा।
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