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श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध
पराश्रित होना ही आत्मा को पतन की ओर ले जाने का प्रथम सोपान है । इस की तो भावना भी साधक के लिये वांछनीय नहीं है। बस इसी दृष्टि से श्री सुदत्त मुनि ने स्वयं पारो के लिये प्रस्थान किया और वे हस्तिनापुर नगर के साधारण और असाधारण सभो घरों में अन करते हुए अन्त में वहां के सुप्रसिद्ध व्यापारी श्री सुमुख गाथापति के घर में प्रविष्ट हुए ।
[प्रथम अध्याय
- रिद्ध० - यहाँ के बिन्दु से अभिमत पाठ पृष्ठ. ५६३ पर, तथा – श्रदे० - यहाँ के बिन्दु श्रभिमत पाठ पृष्ठ १३० पर लिखा जा चुका है। तथा जातिसंपन्ना जाव पंचहि यहां पठित जाव यावत् पद - कुलसम्पन्ने बलरूपविण्य गाणदंसणचरितलाब सम्पन्ने ओयंसी तेयंसी वच्चास जैसि जियको जियमाणे जियमाये जियलाहे जियइन्दिए जियनिद्दे जियपरीसहे जीवियासमरणभयविष्यमुक्के तवदपहाणे गुण पहाणे एवं करणचरणणिग्गहणिच्छ्रय श्रज्जवमद्दवलाघवखन्तिगुत्तिमुत्तिविज्जामंतवं भवेय नयनियमसच्च सोयणाणदंसणचरित पहाणे उराले घोरे घोव्वर घोरतवस्सी घोरबंभवेरेवासी उच्छूढसरीरे संखित्तविपुलतेउल्लेसे चउदसपूवी चउणाणोवगए - इन पदों का परिचायक है । जातिसम्पन्न आदि पदों का अर्थ निम्नोक्त है
For Private And Personal
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प्रभ
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धर्मघोष मुनिराज जातिसम्पन्न-उत्तम मातृपक्ष से युक्त, अथवा जिस की माता सच्चरित्रता आदि सदगुणों से सम्पन्न हो, कुलसम्पन्न उत्तम पितृपक्ष से युक्त, अथवा जिस को पिता सच्चरित्रता आदि उत्तम गुणों से सम्पन्न हो, बल – शारीकि शक्ति, रूप – शारीरिक सौन्दर्य, विनय-नम्रता, ज्ञानबोध, दशन – श्रद्धान, चारित्र - संयम तथा लाघव - द्रव्य से अल्प उपकरण का होना तथा भाव से ऋद्धि, रस और साता के अहंकार र त्याग, से 'से सम्पन्न -युक्त श्रोजस्वी - मनोबल वाले, तेजस्वी शारीरिक प्रभा से युक्त, वचस्वी - वी -- सौभाग्यादि से युक्त वचन वाले अथवा वर्चस्वी - प्रभा वाले, यशस्वी –दश वाले, जितकोध — क्रोध के विजेता, जितमान मान को जोतने वाले, जितनाय माया ( छलकपट) को जीतने वाले, जितलोभ - लोभ पर विजय प्राप्त करने वाले, जितेन्द्रिय -इन्द्रियों के विजेता, जितनिद्र-निद्रा-नींद के विजेता, जितपरीषह – परिषदों क्षुधा पिपासा आदि) के विजेता, जीविताशामरणमयविप्रमुक्त - जीवन की आशा और मृत्यु के भय से रहित, तपप्रधान - अन्य मुनियों की अपेक्षा जिन का तप उकृष्ट था, गुणप्रधान अन्य मुनियों को अपेक्षा जिन में गुणों की विशेषता थी. ऐसे थे इसो भाँति वे धमवो मुनिवर करण - - पिण्डविशुद्धि (आहारशुद्धि), समिति, भावना आदि जैनशास्त्र के प्रसिद्ध ७० बोलों का समुदाय, चरण - महाव्रत आदि, निग्रह - अनाचार में प्रवृत्ति न करना, निश्चय तत्त्वा का निर्णय आजव - सरलता, मादव मान का निग्रह, लाघव कार्यों में दक्षता, क्षान्ति कोष का न करना गुनि मनोसे, वचन गुप्ति आदि ३ गुप्तियें, मुक्ति-निर्लोभता, विद्या शास्त्रीय ज्ञान अथवा देवी से अधिष्ठित साधनसहित अक्षरपद्धति, मंत्र - हरिणगमेत्री आदि देवों से अधिष्ठित अक्षरपद्धति, ब्रह्म - ब्रह्मवर्ष अथवा सब प्रकार का कुरालानुडान सद् श्राचरण, वेद - श्रागम शास्त्र, नय नैगम आदि नय, नियम अभिग्रहविशेष सत्य सत्यवचन, शौच - द्रव्य से निलें – विशुद्ध और भाव से पात्र के प्रावरण से रहित होना, ज्ञान - मतिज्ञान, श्रुतज्ञानादि पंचविध ज्ञान, दर्शन - चतुदर्शन चक्षुदर्शन आदि चतुर्विष दर्शन, चारित्र - सामायिक आदि पञ्चविव चारित्र, इन सब में प्रधानता रखने वाले थे । तथा जो उदार -प्रधान, घोर - राग द्वेषादि श्रात्मों के लिये भयानक, घोरवत - दूसरों से दुरंनुचर वनों - महाव्रतों के धारक, घोरत स्त्री घोर तप के करने वाले, घोरब्रह्मचर्यवासी - नो, नो पीहे नो पत्थे, नो श्रमितसर । परलाभ अस्तायनाणे तक्मा अपी हेमाणे अपत्येमाणे अणभिलस्सेमाणे दुब' लुहसेज्जं अवसँपज्जित्ता गं त्रिइरई । (उत्तराध्ययन अ० २९, सू० ३३)
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