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प्रथम अध्याय]
हिन्दी भाषा टीका सहित।
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अनशन व्रत का अनुष्ठान करते हुए शिथिल है या सशक्त-मज़बा ? इस का उत्तर तो सूत्रकार ने ही स्वयं यह कह कर दे दिया है कि वे मासक्षमण के पारणे के लिये हस्तिनापुर नगर में स्वयं जाते हैं और भिक्षाथ पर्यटन करते हुए उन्हों ने सुमुख गृहपति के घर में प्रवेश किया। इस पर से सुदत्त मुनि के मानसिक और शारीरिक बल की विशिष्टता का अनुमान करना कुच्छ कठिन नहीं रहता । दूसरी बात-तपस्या करने वाले मुनि को अपने शारीरिक और मानसिक बल का पूरा २ ध्यान रखना होता है। वह अपने में जितना बल देखता है उतना ही तप करता है। तपस्या करने का यह अर्थ नहीं होता कि दूसरों से सेवा करवाना और उन के लिये भारभूत हो जाना ।
मास मास दो बार कहने का तात्पर्य यह है कि उन को यह तपस्या लंबे समय से चालू थी । वे वर्ष भर में बारह दिन ही भोजन करते थे, इस से अधिक नहीं । आज श्री सुदत्त मुनि के पारणे का दिन है। उन के अनशन को एक मास हो चुका है। वे उस दिन प्रथम पहर में स्वाध्याय करते हैं, दूसरे में ध्यान तीसरे में वस्त्रपात्रादि तथा मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करते हैं । तदनन्तर आचार्यश्री की सेवा में उपस्थित हो उन्हें सविधि वन्दना नकस्कार कर पारणे के निमित्त भिक्षार्थ नगर में जाने की आज्ञा मांगते हैं । आचार्यश्री की तरफ़ से आशा मिल जाने पर नगर में चले जाते हैं, इत्यादि।
स्या दा प्रकार की होती है, बाह्य और आभ्यन्तर । अनशन यह बाह्य तप-तपस्या है । बाह्य तप श्राभ्यन्तर तप के बिना निर्जीव प्रायः होता है । बाह्य तप का अनुष्ठान आभ्यन्तर तप के साधनार्थ ही किया जाता है। यही कारण है कि श्री सुदत्त मुनि ने पारणे के दिन भी स्वाध्याय और ध्यानरूप प्राभ्यन्तर तप की उपेक्षा नहीं की । वास्तव में देखा जाये तो आभ्यन्तर तप से अनुपाणित हुआ ही बाह्य तप मानव जीवन के आध्यात्मिक विकास में सहायक हो सकता है।
प्रश्न-पांच सौ मनियों के उपास्य श्री सुधर्मघोष स्थविर के अन्य पर्याप्त शिष्यपरिवार के होने पर भी परमतपस्वी सुदत्त अनगार स्वय गोचरी लेने क्यों गये ? क्या इतने मुनियों में से एक भी ऐसा मुनि नहीं या जो उन्हें गोचरी ला कर दे देता ?
उत्तर-महापुरुषों का प्रत्येक आचरण रहस्यपूर्ण होता है, उस के बोध के लिए कुछ मनन की अपेक्षा रहती है । साधारण बुद्धि के मनुष्य उसे समझ नहीं पाते । उन को प्रत्येक क्रिया में कोई न कोई ऊंचा आदर्श छिपा हुआ होता है । सुदत्त मुनि का एक मास के अनशन के बाद स्वयं गोचरी को जाना, साधकों के लिये स्वावलम्बी बनने को सुगतिमूलक शिक्षा देता है । जब तक अपने में सामर्थ्य है तब तक दूसरों का सहारा मत ढूढो। जो व्यक्ति सशक्त होने पर भी दूसरों का सहारा ढूढता है वह अात्मतत्त्व की प्राप्ति से बहुत दूर चला जाता है। इसी दृष्टि से श्री स्थानांगसूत्र के चतुर्थ स्थान तथा तृतीय उद्देश्य में परावलम्बी को दुःखशय्या पर सोने वाला कहा है । वास्तव में पालसो बन कर सुख में पड़े रहने के लिये साधुत्व का अंगीकार नहीं किया जाता। उस के लिये तो प्रमाद से रहित हो कर उद्योगशील बनने की आवश्यकता है । श्री दशवकालिकसूत्र के द्वितीय अध्याय में स्पष्ट शब्दों में कहा है -"-चय सोगमल्लं-" अर्थात् सकमारता का परित्याग करो।गृहस्थ भी यदि शक्ति के होते हुए कमा कर नहीं खाता तो घर वालों को शत्र सा प्रतीत होने लगता है। सारांश यह है कि गृहस्थ हो या साधु, 'परावलम्बन सभी के लिए अहितकर है । वास्तव में विचार किया जाये तो बिना विशेष कारण
(१) स्वावलम्बन के सम्बन्ध में श्री उत्तराध्ययन सूत्र का निम्नलिखत पाठ कितना मार्गदर्शक है ? -
"-संभोगपञ्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ, १, संभोगपञ्चाक्खाणेणं जीवे आलम्बरणाई खवेइ, निरालंबस्स य श्रावठिया जागा भवन्ति, सरणं लाभेणं सन्तुस्सद्द, परलाभ नो श्रासादेइ, परलाभ
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