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प्राक्कथन]
हिन्दीभाषाटीकासहित
श्री समवायांग और नन्दीसूत्र के परिशीलन से यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि आजकल जो विपाकश्रु त उपलब्ध है, वह पुरातन विपाकश्रु त की अपेक्षा अधिक संक्षिप्त तथा लघुकाय है। विपाकश्रु त के इस ह्रास का कारण क्या है ? यह प्रश्न सहज ही में उपस्थित हो जाता है । इस का उत्तर पूर्वाचार्यों ने जो दिया है, वह निम्नोक्त है
___भगवान महावीर स्वामी के प्रवचन का स्वाध्याय प्रथम मौखिक ही होता था, आचार्य शिष्य को स्मरण करा दिया करते थे और शिष्य अपने शिष्य को कण्ठस्थ करा दिया करते थे। इसी क्रम अर्थात् गुरुपरम्परा से आगमों का स्वाध्याय होता था। भगवान् महावीर के लगभग १५० वर्षों के पश्चात् देश में दुर्भिक्ष पड़ा । दुर्भिक्ष के प्रभाव से जैनसाधु भी नहीं बच पाये । अन्नाभाव के कारण, आहारादि के न मिलने से साधुओं के शरीर और स्मरणशक्ति शिथिल पड़ गई । जिस का परिणाम. यह हुआ कि कण्ठस्थ विद्या भूलने लगी । जैनेन्द्र प्रवचन के इस ह्रास से भयभीत होकर जैनमुनियों ने अपना संमेलन किया और उसके प्रधान स्थूलिभद्र जी बनाये गये । स्थूलिभद्र जी के अनुशासन में जिन २ मुनियों को जो २ आगमपाठ स्मरण में थे, उन का संकलन हुआ जोकि पूर्व की भाँति अंग तथा उपांग आदि के नाम से निर्धारित था। भगवान् महावीर स्वामी के लगभग ६०० वर्षों के अनन्तर फिर दुर्भिक्ष पड़ा। उस दुर्भिक्ष में भी जैन मुनियों का काफी ह्रास हुआ। मुनियों के ह्रास से जैनेन्द्र प्रवचन का ह्रास होना स्वाभाविक ही था । तब प्रवचन को सुरक्षित रखने के लिये मथुरा में स्कन्दिलाचार्य की अध्यक्षता में फिर मुनिसम्मेलन हुआ । उस में भी पूर्व की भाँति आगमपाठों का संग्रह किया गया । तब से उस संग्रह का ही स्वाध्याय होने लगा। काल की विचित्रता से दुर्भिक्ष द्वारा राष्ट्र फिर आक्रान्त हुश्रा । इस दुर्भिक्ष में तो जनहानि पहिले से भी विशेष हुई। भिक्षाजीवी संयमशील जैनमुनियों की क्षति तो अधिक शोचनीय हो गई । समय की इस क्रूरता से निर्ग्रन्थप्रवचन को सुरक्षित रखने के लिये श्रीदेवर्द्धि गणो क्षमाश्रमण (वीरनिर्वाण सं०६८०) ने वलभी नगरी में मुनिसम्मेलन किया । उस सम्मेलन में इन्हों ने पूर्व की भाँति आगमपाठों का संकलन किया और उसे लिपिबद्ध कराने का बुद्धिशुद्ध प्रयत्न किया । तथा उन की अनेकानेक प्रतियां लिखा कर योग्य स्थानों में भिजवादी । तब से इन आगमों का स्वाध्याय पुस्तक पर से होने लगा । आज जितने भी आगम ग्रन्थ उपलब्ध हैं वे सब देवर्द्धि गणी क्षमाश्रमण द्वारा सम्पादित पाठों के आदर्श हैं । इन में वे ही पाठ पंकलित हुए हैं जो उस समय मुनियों के स्मरण में थे । जो पाठ उन की स्मृति में नहीं रहे उन का लिपिबद्ध न होना अनायास ही सिद्ध है । अतः प्राचीन सूत्रों का तथा आधुनिक काल में उपलब्ध सूत्रों का अध्ययनगत तथा विषयगत भेद कोई आश्चर्य का स्थान नहीं रहता। यह भेद समय की प्रबलता को आभारी है । समय के आगे सभी को नतमस्तक होना पड़ता है।
विपाकसूत्र में वर्णित जीवनवृत्तान्तों से यह भलिभाँति ज्ञात हो जाता है कि कर्म से छूटने पर सभी जीव मुक्त हो जाते हैं, परमात्मा बन जाते हैं । इस से-परमात्मा ईश्वर एक ही है, यह सिद्धान्त प्रामाणिक नहीं ठहरता है । वास्तव में देखा जाय तो जीव और ईश्वर में यही अन्तर है कि जीव की सभी शक्तियां आवरणों से घिरी हुई होती हैं और ईश्वर की सभी शक्तियां विकसित हैं, परन्तु जिस समय जीव
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