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श्री विपाकसूत्र
[प्राकथन
अध्ययनों में क्या वर्णन है ? यह प्रश्न, इस का समाधान निम्नोक्त है--
दुःखविपाक के दश अध्ययनों में दुःखविपाकी-दुःवरूपकर्मफल को भोगने वाले जीवों के नगरों, उद्यानों, वनखण्डों, चैत्यों, समवसरणों, राजाओं, मातापिताओं, धर्माचार्यों, धर्मकथाओं, लोक और परलोक की विशेष ऋद्धियों, नरकगमन, संसार के भवों का विस्तार, दुःखपरम्परा, नीच कुलों में उत्पत्ति, सम्यक्त्व की दुर्लभता इत्यादि विषयों का वर्णन किया गया है । यही दुःखविपाक का स्वरूप है ।
प्रश्न-श्रीविपाकश्रुतसम्बन्धी सुखविपाक के दस अध्ययनों में क्या वर्णन है ?
उत्तर-सुखविपाक के दस अध्ययनों में सुखविपाकी-सुखरूप कर्मफल का अनुभव करने वाले जीवों के नगर, उद्यान, वनखण्ड, चैत्य, समवसरण, राजा और मातापिता, धर्माचार्य, धर्मकथाएं, लोक
और परलोक की विशिष्ट ऋद्धियें, भोगों का त्याग, प्रव्रज्याएं, दीक्षापर्याय, श्रुत-आगम का ग्रहण, तपउपधान-उपधानतप अर्थात् सूत्र वाचने के निमित्त किया जाने वाला तप अथवा तप का अनुष्ठान, संलेखना-संथारा, भक्तप्रत्याख्यान-आहारत्याग, पादपोपगमन-संथारे का एक भेद, देवलोकगमन, सुखपरम्परा, अच्छे कुल में उत्पत्ति, फिर से सम्यक्त्व की प्राप्ति, संसार का अंत करना, यह सब वर्णित हुआ है।
विपाकश्रुत की परिमित वाचनाएं हैं । संख्येय-संख्या करने योग्य, अनुयोगद्वार हैं । संख्येय वेढ-छन्दविशेष हैं । संख्येय श्लोक हैं । संख्येय नियुक्तियां हैं । नियुक्ति का अर्थ है--सूत्र के अर्थ की विशेषरूप से युक्ति लगा कर घटना करना अथवा सूत्र के अर्थ की युक्ति दर्शाने वाला वाक्य अथवा प्रन्थ । संख्येय संग्रहणियां हैं। संग्रहणी संग्रहगाथा, को कहते हैं। संख्येय प्रतिपत्तियां हैं। प्रतिपत्ति का अर्थ है- श्रुतविशेष, गति, इन्द्रिय श्रादि द्वारों में से किसी एक द्वार के द्वारा समस्त संसार के जीवों को जानना अथवा प्रतिमा आदि अभिग्रहविशेष ।
विपाकश्रुत अंगों में ११वां अङ्ग है । इस के दो श्रुतस्कन्ध हैं। इस के बीस अध्ययन हैं। बीस उद्देशनकाल और बीस ही समुद्देशनकाल हैं । इस के पदों का प्रमाण संख्येय हज़ार है अर्थात् इस में एक करोड़ ८४ लाख ३२ हजार पद हैं। इस में संख्येय अक्षर हैं । इस में अनन्त गम हैं। अनन्त पर्याय हैं । इस में परिमित सूत्रों और अनन्त स्थावरों का वर्णन हैं । इस में जिन भगवान द्वारा प्रतिपादित शाश्वत-अनादि अनन्त और अशाश्वत अर्थात कृत (प्रयोगजन्य, जैसे घटपटादि पदार्थ) तथा विस्रसा (जो प्राकृतिक हैं, जैसे संध्याभ्रराग-सायंकाल के बादलों का रंग मादि) भाव-पदार्थ कहे गए हैं, जिनका स्वरूप प्रस्तुत सूत्र में प्रतिपादित है तथा नियुक्ति, संग्रहणी आदि के द्वारा अनेक प्रकार से जो व्यवस्थापित हैं । जो सामान्य अथवा विशेषरूप से वर्णित हुए हैं, नामादि के भेद से जिन का निरूपण-कथन किया गया है, उपमा के द्वारा जिन का प्रदर्शन किया गया है । हेतु और दृष्टान्त के द्वारा जिन का उपदर्शन किया गया है और जा निगमण द्वारा निश्चितरूपेण शिष्य की बुद्धि में स्थापित किये गए हैं।
इस सुखविपाकसूत्र के अनुसार आचरण करने वाला आत्मा तद्रूप अर्थात सुखरूप हो जाता है. इसी भाँति इस का अध्ययन करने वाला व्यक्ति इस के पदार्थों का ज्ञाता एवं विज्ञाता हो जाता है। सारांश यह है कि सुखविपाक में इस प्रकार से चरण और करण की प्ररूपणा की गई है । यही सुखविपाक का स्वरूप है।
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