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प्रथम अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
[ ५७५
1
जब कुछ बूढे होने लगेंगे, उस समय धर्म का प्राराधन कर लेंगे, वे बड़ी भूल करते हैं। मृत्यु का कोई भरोसा नहीं, कल सूर्य को उदय ह ते देखेंगे कि नहीं, इस का कोई निश्चय नहीं है। प्रतिदिन ऐसी अनेक घटनाए दृष्टिगोचर होती हैं, जिन से मानव शरीर की विनश्वरता और क्षणभङ्ग रता निस्संदेह प्रमाणित हो जाती है। इसी दृष्टि से भगवान् ने सुबाहुकुमार को धर्माराधन में विलम्ब न करने का उपदेश दिया प्रतीत होता है । भगवान् के उक्त कथन में ये दोनों बातें इतनी अधिक मूल्यवान है कि इन को हृदय में निहित करने से मानव में विचारसंकीणता को कोई स्थान नहीं रहता ।
ऊपर अनगारधर्म और सागारधर्म का उल्लेख किया गया है। अनगार साधु का श्राचरणीय धर्म महावतों का यथाविधि पालन करना है, तथा सागारधर्म - गृहस्थधर्मों का पालन करना है । व्रत शब्द के साथ अणु और महत् शब्द के संयोजन से वह गृहस्थ और साधु के घरों में प्रयुक्त होने लग जाता है । जैसे कि ती श्रावक और महावती साधु । इस प्रकार गृहस्थ के व्रत अणु-छोटे और साधु के व्रत महान् - बड़े कहे जाते हैं।
शास्त्रों में हिंसा, श्रनृत, स्तेय, ब्रह्म और परिग्रह से विरति - निवृत्ति करने का नाम 'व्रत है । उन में अल्प अंश में निवृत्ति अणवत और सर्वांश में विरति महाव्रत है । दूसरे शब्दों में हिंसा, सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य और रूप व्रतों का सर्वांशरूप में पालन करना महाव्रत और अल्पांशरूप में पालन युवत कहलाता है । हिंसा आदि व्रतों का अर्थ निम्नोक है
१ - श्रहिंसा - मन, वचन और शरीर के द्वारा स्थूल तथा सूक्ष्म रूप सर्व प्रकार की हिंसा से निवृत्त होना श्रहिंसावत अर्थात् पहला व्रत है ।
२ - सत्य - मन, वचन और शरीर के द्वारा किसी प्रकार का भी मिध्याभाषण न करना
दूसरा सत्य व्रत है ।
३ - अस्तेय - किसी वस्तु को उस के स्वामी की आज्ञा के बिना ग्रहण करना स्तेय - चोरी , उस का मन, वचन और काया से परित्याग करना अस्तेय अर्थात् अचौर्य व्रत है । - सर्व प्रकार के मैथुन का परित्याग करना ब्रह्मचर्यव्रत कहा जाता है । ५ - अपरिग्रह - लौकिक पदार्थों में मूर्च्छा - आसक्ति तथा ममत्व का होना परिग्रह है । उस को त्याग देने का नाम अपरिग्रहवत है।
४ - ब्रह्मचर्य -
ये पांचों ही ऋणु और महान् भेदों से दो प्रकार के है। जब तक इन का आशिक पालन हो तब तक तो इन की अणुव्रत संज्ञा है और सर्वथा पालन में ये महाव्रत कहलाते हैं । तात्पर्य यह है कि
हिंसा आदि व्रतों के पालन का विधान शास्त्रों में गृहस्थ और साधु दोनों के लिये है, परन्तु गृहस्थ के लिये इन का सर्वथा पालन अशक्य है, इन का सर्वथा पालन साधु ही कर सकता है । अतः गृहस्थ की अपेक्षा है और साधु की अपेक्षा इन की महावत संज्ञा है । अनगार महाव्रतों का पालक होता है और श्रावकों का पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत सम्मिलित करने से १२ व्रतों का
ये
(१) हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरति तम् ||१|| देश सर्वतोऽण महती ॥२॥
( तत्त्वार्थ सूत्र श्र० ७ )
(२) श्री श्रीपपातिक सूत्र के धर्मकथाप्रकरण में पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षा इस प्रकार १२ व्रत लिखे हैं परन्तु प्रकृत में सूत्रकार ने तीन गुणव्रतों और चार शिक्षात्रतों को शिक्षारूप मानते हुए सतसिवातियं - इस पद से ही व्यक्त किया है । व्याख्यास्थल में हम ने १२ व्रतों का निरूपण करते हुए औपपातिक – सूत्रानुसारिणी पद्धति को अपनाते हए ५ अणव्रत तीन गणव्रत और ४ शिक्षाव्रत. ऐसा संकलन किया है ।
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