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वनम अध्याय
हिन्दी भाषा टीका साहत ।
[४८९
संकप्पा जाव झियाहि-यहां पठित जाव-यावत् पद से पृष्ठ ४८३ तथा ४८४ पर पढ़े गये भूमीगयदिढ़िया-इत्यादि पदों का दोध होता है। __-इट्ठाहिं जाव समासासेति -यहां पठित जाव-यावत् पद से-कंताहिं, पियाहिं, मनुराणाहिं, मणामाहिं, मणोरमाहिं, उरालाहिं, कल्लाणाहिं, सिवाहि, धन्नाहिं, मंगलाहिं, ससिरीयाहिं, हिययगमणिज्जाहिं, हिययपल्हायनिज्जाहिं, मिय-महुर-मंजुलाहिं वग्गूहि-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को इष्ट है। इष्ट अादि पदों का अर्थ निम्नोक्त है
१-इष्ट-अभिलषित (जिस की सदा इच्छा की जाए) का नाम है । २-कान्त सुन्दर को कहते हैं। 3-जिसे सुन कर द्वेष उत्पन्न न हो उसे प्रिय कहा जाता है।४-जिस के श्रवण से मन प्रसन्न होता है वह मनोज्ञ कहलाता है। ५-मन से जिस की चाहना की जाए उसे मना ६-जिस के चिन्तन मात्र से मन में प्रमोदानभव हो उसे मनोरम कहते हैं । ७-नाद, वर्ण और उस के उच्चारण आदि की प्रधानता वाला उदार कहलाता है। ८-समृद्धि करने वाला-इस अर्थ का परिचायक कल्याण शब्द है । ९-वाणी के दोषों से रहित को शिव कहते हैं । १०-धन की प्राप्ति करने वाले अथवा प्रशंसनीय वचन को धन्य कहा जाता है। ११-अनर्थ के प्रतिघात-विनाश में जो हितकर हो उसे मंगल कहते हैं । १२-अलंकार आदि को शोभा से युक्त सश्रीक कहलाता है । १३ - हृदयगमनीय शब्द-कोमल
और सुबोध होने से जो हृदय में प्रवेश करने वाला हो, अथवा हृदयगत शोकादि का उच्छेद करने वाला होइस अर्थ का परिचायक है। १४ -हृदयप्रसादनीय शब्द -हृदय को हर्षित करने वाला, इस अर्थ का बोध कराता है। १५-मितमधुरमंजुल-इस में मित, मधुर और मंजुल ये तीन पद हैं । मित परिमित की कहते हैं, अर्थात् वर्ण, पद और वाक्य की अपेक्षा से जो परिमित हो उसे मित कहा जाता है । मधुरशब्द मधुर स्वर वाले वचन का बोध कराता है । शब्दों की अपेक्षा से जो सुन्दर है उसे मंजुल कहते हैं । १६-वाग-वचन का नाम है। प्रस्तुत में इष्ट आदि विशेषण हैं और वाग यह विशेष्य पद है।
-पासाइयं ४- यहां दिये गये ४ के अंक से -दसणणिज्जे अभिरुवे पडिरूवे-इन पदों का ग्रहण अभिमत है । इन का अर्थ पदार्थ में दिया जा चुका है । तथा-करयल० जाव पडिसुणेति-यहां के बिन्दु तथा-जाव-यावत् पद से पृष्ठ २४६ पर पढ़े गये-करयजपरिग्गहियं दसणहं अंजलिं मत्थर का - इन पदो का, तथा पृष्ठ २५० पर पढ़े गये - तहत्ति श्राणाए विणएणं वयणं-इन पदों का ग्रहण कराना सूत्रकार को अभिमत है।
प्रस्तुत सूत्र में महारानी श्यामा का चिन्तातुर होना तथा उस की चिन्ता को विनष्ट करने की प्रतिज्ञा कर महाराज सिंहसेन का अपने अनुचरों को नगर के पश्चिम भाग में एक विशाल कुटाकारशाला के निर्माण का आदेश देना और उसके आदेशानुसार शाला का तैयार हो जाना आदि बातों का वर्णन किया गया है। अब सूत्रकार उस शाला से क्या काम लिया जाता है ?, इस बात का वर्णन करते हैंमल -' तते णं से सीहरूण राया कयाइ एगुणगाणं पंनएहं देवीसयाणं एगूगाई
(१ छाया-ततः स सिंहसे नो राजा अन्यदा कदाचिद् एकोनानां पञ्चानां देवी रातानामेकोनानि पञ्चमातृशतानि आमंत्रयति । ततस्तासामेकोनानां पञ्चानां देवीशतानामेकोनानि पञ्चमातृशतानि सिंहसेनेन राजा आमन्त्रितानि सन्ति सर्वालंकारविभूषितानि यथाविभवं यत्रैव सुपतिष्ठं नगरं यत्रैव सिंहसेनो राजा तवोपागच्छन्ति । तत: स सिंहसेनो राजा एकोनानां पञ्चदेवीशतानामेकोनानां पञ्चमातृशतानां कूटाकार - शालामावसथं दापयति । तत: स सिंहसनो राजा कोटुम्विक पुरुषान् शब्दयति शब्दयित्वा एवमवादीत् - गच्छत
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