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श्री विपाक सूत्र
.[अष्टम अभ्याय
देना हृदमाईन कहा जाता है । अर्धमागधीकोष में-इदमदन शब्द का "-सरोवर में वार २ घूमने को जाना-जलभ्रमण--" ऐसा अर्थ लिखा है।
१६-दहमहणं-दमथनम्, हरजलस्य तरुशाखाभिर्विलोडनम्-" अर्थात् वृक्ष की शाखाओं के द्वारा हृद के जल का विलोडन करना - मथना, हृदमथन कहलाता है । हृदमन्थन में मच्छीमारों का मत्स्यादि को भयभीत तथा स्थानभ्रष्ट करके पकड़ने का ही प्रधान उद्देश्य रहता है।
७-दहवहणं-हृदवहनम्-" इस पद के दो अर्थ होते हैं, जैसे कि १-नाली आदि के द्वारा हुद के पानी को निकालना, अर्थात् ह्रदवहन शब्द " - सरोवर में से पानी निकालने के लिये जो नालियें होती है, उन में से पानी निकाल कर मत्स्य आदि को पकड़ना -" इस अर्थ का परिचायक है। २- हृद से पानी का स्वतः बाहिर निकलना अर्थात् हृद में नौकाओं के प्रविष्ट होने से पानी हिलता है और वह स्वतः ही बाहिर निकल जाता है, इस अर्थ का बोध हृदवहन शब्द कराता है।
८-दहप्पवहणं-हृदप्रवहनम् -' इस पद के भी दो अर्थ उपलब्ध होते हैं, जैसे कि१-मत्स्य आदि को पकड़ने के लिये हृद का बहुत सा पानी निकाल देना । २-मत्स्यादि को ग्रहमा करने के लिये नौकों द्वारा हृद में भ्रमण करना।।
इस के अतिरिक्त १-प्रपञ्च ल, २-प्रपम्पुल, ३ - जम्भा, ४-त्रिसरा, ५-भिसरा, ६विसरा, ७-द्विसिरा, ८ -हिल्लिरि, ९-झिल्लिरि, १०-जाल, ये सब मत्स्यादि के पकड़ने के भिन्न २ साधनविशेष है, जिन को वृत्तिकार ने "--मत्स्यबन्धनविशेषाः-" कह कर उल्लेख किया हैप्रपञ्चकादयो मत्स्यबन्धनविशेषाः । कोषकारों ने इन में से कई एक की संस्कृत छाया दी है और कई एक को देश्य माना है । तथा-मछली पकड़ने के कांटे को गल कहते हैं । कूटपाश भी मछलो पकड़ने के जालविशेष ही होता है.। वल्कबन्ध का अर्थ होता है-त्वचा का बना हुअा बन्धन । सूत्र से निर्मित बन्धन सूत्रबन्धन और केशों का बना हुअा बन्धन वालबन्धन कहलाता है । तात्पर्य यह है कि सर्वप्रथम मत्स्यों को अनेकविध जालों द्वारा पकड़ा जाता था फिर उन्हें वल्कल आदि के बंधनों से बांध दिया जाता था।
कोषकार ने "-मच्छखले -मत्स्यवत-" का अर्थ "मछलियों के सुखाने की जगह" ऐसा किया है. और टीकाकार श्री अभयदेव सरी " -मन्छ वलए करेति-" का अर्थ करते हैं "स्थडिनेषु मत्स्यपुजान् कर्वन्ति-" अर्थात् भूमी पर मछलियों के ढेर लगाते हैं । प्रकृत में ये दोनों ही अथ सुसंगत हैं ।
-अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे-यहां पठित जाव-यावत् पद से विवक्षित पदों का वर्णन पृष्ठ ५५ पर, तथा-सरहमच्छे य जाव पडागातिपडागे - यहां पठित जाव-यावत् पद से अपेक्षित पाठ पीछे पृष्ठ ४४५ पर तथा-सुरं च ६–यहां के अंक से अभिमत पाउ पृष्ठ ४४७ पर तथा-आसाएमाणे ४यहां दिये गये अंकों से अभिमत पाठ पृष्ठ २५० पर लिखा जा चुका है।
अब सत्रकार शौरिकदत्त के अग्रिम जीवन के वृत्तान्त का वर्णन करते हुए कहते हैं - मल_'तते णं तस्स सोरियदत्तस्म मच्छंधस्स अन्नया कयाइ ते मच्छे सोल्ले य
(१) छाया-ततस्तस्य शौरिकदत्तस्य मत्स्यबंधस्य, अन्यदा कदाचित् तान् मत्स्यान् शूल्यांश्च तलितांश्च भर्जितांश्च श्राहरतो मत्स्यकटको गले लग्नश्चाप्यभवत् । ततः स शौरिको महत्या वेदनयाऽभिभूतः सन् कौटुम्बिकपुरुषान् शन्दाययति शब्दाययित्वा एवमवादीत् - गच्छत यूयं देवानुप्रियाः ! शौरिकपुरे नगरे शृङ्गाटक. यावत् पथेषु महता महता शब्देन उद्घोषयन्त: उद्घोषयन्त एवं वदत-एवं खलु देवानुप्रियाः ! शौरिकस्य मस्त्यकंटको गले लग्नः तद् य इच्छति वेद्यो वा ६ शौरिकमात्स्यिकस्य मत्स्यकपटकं गलाद निस्सारयित'
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