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(४०)
श्रीं विपाक सूत्र
[प्राक्कथन
सादि और प्रवाह की अपेक्षा से *अनादि है। जैन सिद्धान्त कहता है कि प्राणी सोते, जागते, उठते, वैठते और चलते फिरते किसी न किसी प्रकार की चेष्टा-हिलने चलने की क्रिया करता ही रहता है, जिस से वह कर्म का बन्ध कर लेता है । इस अपेक्षा से कर्म सादि अर्थात् आदि वाला कहा जाता है, परन्तु कर्म का प्रवाह कब से चला ? इसे कोई भी नहीं बतला सकता । भविष्य के समान भूतकाल की गहराई भी अनन्त (अन्तरहित) है। अनादि और अनन्त का वर्णन, अनादि और अनन्त शब्द के अतिरिक्त और किसी तरह भी नहीं किया जा सकता। इसीलिये दार्शनिकों ने इसे बीजांकुर या बीजवृक्ष न्याय से उपमित किया है । तात्पर्य यह है कि जैसे बीज से उत्पन्न हुआ वृक्ष बीज को उत्पन्न करता है अर्थात् बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज को उत्पन्न होते देखा जाता है, तब इन दोनों में प्रथम किसे कहना ना मानना चाहिये? इस के निर्णय में सिवाय"-वे दोनों ही प्रवाह से अनादि हैं। इस की सम्बन्ध परम्परा अनादि है-"यह कहने के और कुछ नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार जीवात्मा के साथ कर्म का जो सम्बन्ध, है उस की परम्परा भी अनादि है। इस दृष्टि से विचार करने पर कर्मसम्बन्ध को अनादि ही कहना वा मानना होगा।
इस विषय में कुछ विचारकों की तर्फ से यह प्रश्न होता है कि अगर कर्म और आत्मा का सम्बन्ध अनादि है, अनादिकाल से चला आता है तो उस का भविष्य में भी इसी प्रकार चलता रहेगा? तात्पर्य यह है कि जो वस्तु अनादि है, जिस का आदि नहीं तो उस का कभी अन्त भी नही होगा । और यदि कर्मों को अनादि अनन्त मान लिया जावे अर्थात् कर्म और जीव के सम्बन्ध को आदि और अन्त से शून्य स्वीकार कर लिया जावे तब तो उस का कभी विच्छेद ही नहीं हो सकेगा ?
इस विषय को समाहित करने के लिये सर्वप्रथम इन पदार्थों के स्वरूप को समझना आवश्यक है । पदार्थ चार तरह के होते हैं-१-अनादि अनन्त, २-अनादि सान्त, ३-सादि अनन्त और ४-सादि सान्त । जिस का न आदि हो न अन्त हो उसे अनादिअनन्त कहते हैं । जिस का आदि न हो
और अन्त हो वह अनादि सान्त कहलाता है । जिस का आदि हो और अन्त न हो वह सादि अनन्त है, और जिस का आदि भी हो और अन्त भी वह सादि सान्त कहलाता है। इन में आत्मा और पुद्गल अनादि अनन्त हैं। आत्मा और कर्मसंयोग अनादि सान है। मोक्ष सादि अनन्त और घटपट का संयोग सादि सान्त है।
आत्मा और कर्म का सम्बन्ध श्रादि होने पर बीजगत उत्पादक शक्ति की तरह सान्त--अन्त वाला है। जैसे बीज में अंकुरोत्पादक शक्ति अनादि है और जब उस को (बीज को) भट्टी में भून दिया जाता है तब वह शक्ति नष्ट हो जाता है । ठीक इसी प्रकार आत्मा के साथ अनादि काल से सम्बद्ध कर्मों को जब जप, तप और ध्यानरूप अग्नि के द्वारा जला दिया जाता है, उन की निर्जरा कर दी जाती है तो कर्ममल से विशुद्ध हुई आत्मा मोक्ष में जा विराजती है। फिर उस का जन्म नहीं होता, वह सदा अपने स्वरूप में ही रमण करती रहती है ।
एक और उदाहरण लीजिये- देवदत्त नाम के व्यक्ति के पिता. पितामह आदि की पूर्व*संतई पप्पणाइया, अपज्जवसिया वि या। ठिई पडुच्च साइया, सपज्जवसिया वि या॥ (उत्तराध्ययन, अ० ३६, गा० १३१)
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