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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (३६) हिन्दीभापाटीका सहित प्राक्कथन ] गुण हों तो उन्हें छिपाना और उन के कहने का प्रसंग पड़ने पर भी द्वेष से उन्हें न कहना, वही दूसरों के सद्गुणों का आच्छादन है । तथा अपने में गुण न होने पर भी उन का प्रदर्शन करना यही निज के असद्गुणों का प्रकाशन कहलाता है । २ - उच्चगोत्र के बन्धहेतु - परप्रशंसा आत्मनिन्दा, असद्गुणोद्भावन, स्वगुणाच्छादन, नम्र प्रवृत्ति और निरभिमानता ये उच्चगोत्रकर्म के बन्धहेतु हैं । दूसरों के गुणों को देखना परप्रशंसा कहा जाता है । अपने दोषों को देखना आत्मनिन्दा है । अपने दुर्गुणों को प्रकट करना सद्गुणोद्भावन है । अपने विद्यमान गुणों को छिपाना स्वगुणाच्छादन है । पूज्य व्यक्तियों के प्रति नम्र वृत्ति धारण करना नम्रवृत्ति है । ज्ञानसम्पत्ति आदि में दूसरे से अधिकता होने पर भी उस के कारण गर्व धारण न करना निरभिमानता है । इस के अतिरिक्त गोत्र के विषय में कहीं पर जातिमद, कुलमद, बलमद, रूपमद, तपमद, लाभमद, विद्यामद और ऐश्वर्यमद इन आठ मदों को नीचगोत्र के बन्ध का कारण माना गया है और इन आठों प्रकार के मदों के परित्याग को उच्चगोत्र के बन्ध का हेतु कहा है । ८-अन्तरायकर्म के बन्धहेतु-- दानादि में विघ्न डालना अन्तरायकर्म का *बन्धहेतु है । अर्थात् किसी को दान देने में या किसी से कुछ लेने में अथवा किसी के भोग उपभोग आदि में बाधा डालना किंवा मन में वैसी प्रवृत्ति लाना अन्तरायकर्म के बन्धहेतु हैं । इस प्रकार सामान्यतया आठों ही कर्मों की मूलप्रकृतियों और बन्ध के प्रकार तथा बन्ध के हेतुओं का विवेचन करने से जैनदर्शन की कर्मसम्बन्धी मान्यता का भलीभाँति बोध हो जाता है । कर्मों के सम्बन्ध में जितना विशद वर्णन जैन ग्रन्थों में है, उतना अन्यत्र नहीं, यह कहना कोई अत्युक्तिपूर्ण नहीं है । जैनवाङ्मय में कर्मविषयक जितना सूक्ष्म पर्यालोचन किया गया है, वह विचारशील दार्शनिक विद्वानों के देखने और मनन करने योग्य है । अस्तु, कर्म सादि है या अनादि ? यह एक बहुत पुराना और महत्त्व का दार्शनिक प्रश्न है, जिस का उत्तर भिन्न २ दार्शनिक विद्वानों ने अपने २ सिद्धान्त के या विचार के अनुसार दिया है। जैन दर्शन का इस प्रश्न के उत्तर में यह कहना है कि कर्म सादि भी है और अनादि भी । व्यक्ति की अपेक्षा वह *विघ्नकरणमन्तरायस्य । ( तत्त्वा० ६ २६ ) बन्ध का स्वरूप तथा बन्धहेतुओं का जो ऊपर निरूपण किया गया है, वह जैनजगत के महान् तत्वचिन्तक तथा दार्शनिक पण्डित सुखलाल जी तत्वार्थ सूत्र से उद्धृत किया गया है। आठां कर्मों के बन्धहेतु, कर्मग्रन्थां में भिन्न २ रूप से प्रतिपादन किये हैं । नवतत्त्व में कर्म - बन्ध के कारण ८५ लिखे हैं । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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