________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
४०८]
श्री विपाक सूत्र
[सप्तम अध्याय
दू' तो य वत् याचना करती है अर्थात् मन्नत मनातो है. मन्नत मना कर जिधर से अ थी उधर को चली जाती है।
टीका - जिस समय श्रेष्ठिभार्या गंगादत्ता को उस के विचारानुसार कार्य करने की पतिदेव की तर्फ से आज्ञा मिल गई और उपयुक्त सामग्री ला देने का उसे वचन दे दिया गया, तब गंगादत्ता को बड़ी प्रसन्नता हुई तथा हर्षातिरेक से वह प्रफुल्लित हो उठी । उस ने नानाविध पुष्पादि की देवपूजा के योग्य सामग्री एकत्रित कर तथा मित्रादि की महिलाओं को साथ ले पाटलिपंड नगर के बीच में से होकर पुष्करिणी - बावड़ी ( जो उद्यानगत यक्षमदिर के समीप ही थी ) की ओर प्रस्थान किया । पुष्करिणी के पास पहुंच कर उस के किनारे पुष्पादि सामग्री रखकर वह पुष्करिणी में प्रविष्ट हुई और जलस्नान करने लगी, स्नानादि से निवृत्त हो, 'मांगलिक क्रियाएं कर भीगी हुई साड़ी पहने हुए तथा भीगा वस्त्र ऊपर अोढे हुए वह पुष्कारेणी से बाहिर निकलती है, निकल कर उस ने रक्खी हई देवपूजा की सामग्रो उठाई. और उम्बरदत्त यन के मंदिर की। वहां आकर उसने यक्ष को प्रणाम किया। तदनन्तर यक्ष - मंदिर में प्रवेश कर उस ने यक्षराज क पुष्पादि सामग्री द्वारा विधिवत पूजन किया । प्रथम वह रोमहस्त-मोर के पंखो से झाड. से यक्षप्रतिमा का प्रमाजन करती है, तदनन्तर जलधारा से उस को स्नान कराती है. स्नान के बाद अत्यन्त कोमल सुगन्धित कषायरंग के वस्त्र से उस के अंगों को पोंछती है, पोंछ कर श्वेतवस्त्र पहनाती है, तदनन्तर उस पर पुष्प और मालाए चढ़ाती है एव उस के अागे चूर्ण -नैवेद्य रखती है और फिर घूप धूखाती है ।
इस प्रकार पूजाविधि के समाप्त हो जाने पर यक्षप्रतिमा के आगे घुटने टेक और चरणों में सिर झुकाकर प्रार्थना करती हुई इस प्रकार कहती है कि हे देवानुप्रिय ! आप के अनुग्रह से यदि मैं जीवित बालक अथवा बालिका को जन्म देकर माता बनने का सद्भाग्य प्राप्त करू, तो मैं आप के मन्दिर में आ कर नानाविध सामग्री से आप की पूजा किया करूंगी, और श्राप के नाम से दान दिया करू गी तथा आप के देवभण्डार को पूर्णरूप से भरदूगी, इस प्रकार उम्बरदत्त यक्ष की मन्नत मानकर वह अपने घर को वापिस आजाती है । यह सूत्र वर्णित कथावृत्त का सार है।
-'कयकोउयमंगला उल्लपडसाडिया -'' इन पदों का व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में - "- कौतुर्कानि मषीपुडादीनि मालानि दध्यक्षतादीनि उल्नण्डसाडिय त्ति पट: प्रावरणम् शाटको निवसनम् -” इस प्रकार है । तात्पर्य यह है कपाल-मस्तक में किये जाने वाले तिलक का नाम कौतुक है और मंगल शब्द दधि तथा अक्षत -बिना टूटा हुआ चावल आदि का बोधक है । प्राचीन काल में काम करने से पूर्व तिलक का लगाना और दधि एवं अक्षत आदि का खाना मांगलिक कार्य समझा जाता था । एवं पट शब्द से ऊपर अोढने का वस्त्र और शाोटका से नीचे पहरने की धोती का ग्रहण होता है ।
"- पुष्फ० मिन० महिलाहिं-" यहां का बिन्दु- वत्थगन्धमल्लाल कारं गहाय बहूहिं मित्तणाइणियगसयणसंबन्धिपरिजण - इन पदों का परिचायक है । इन पदो का अर्थ पृष्ठ ३९८ पर लिखा जा चुकी है।
(१) यहां पर इतना ध्यान रहे कि श्रेष्ठभार्या गंगादत्ता ने मांगलिक क्रियाए बावड़ी के पानी में स्थित होकर नहीं की थीं, किन्तु बाहिर आकर बावड़ी की चार दीवारी पर बैठकर की थीं। तदनन्तर वह उस वापी की चार दीवारी से नीचे उतरती है. ऐसा अर्थ समझना चाहिये ।
For Private And Personal