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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सप्तम अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित पर किया जा चुका है । कल्लं जाव जलन्ते- यहां पठित जाव-यावत पद से-पाउप्पभायाए रयणीयफुल्लुप्पल. कमल - कोमलुम्मीलियम्मि अहापण्डुरे पभाए रत्तासोग - पगास - किंसुय-सुअमुह-गु जद्धरागबन्धुजीवग-पारावयचलण-नयण -परहुअ-सुरत्तलोअण-जासुमण-कुसुम--जलिय जलण-तवणिज-कलस-हिंगुलय-निगर - रुवाइरेग-रेहन्त-सस्सिरीए दिवागरे अहक्कमेण उदिए तस्स दिणगरकरपरंपरावयारपारद्धम्मि अंधयारे बालातवकुकुमेणं आंचय व्व जीवलोए लोयणविसयाण्यासविगसंतविसददसियर्याम्म लोए कमलागरसण्डवोहए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिरिम दिणयरे तेअसा- इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को इष्ट है। इन पदों का भावार्थ निनोक्त है - जिस में प्रभात का प्रकाश हो रहा है, ऐसी रजनी- रात के व्यतीत हो जाने पर अर्थात् रात्रि के व्यतीत और प्रभात के प्रकाशित हो जाने पर, विकसित पद्म और कमल -- हरिणविशेष का कोमल उन्मीलन होने पर अर्थात् कमल के दल खुल जाने पर और हरिण की आंखें खुल जाने, पर अथ-अनन्तर अर्थात् रजनी के व्यतीत होजाने के पश्चात् प्रभात के पाण्डुर - शुक्न होने पर, रक्त अशोक-पुष्पविशेष की कान्ति के समान, किंशुक – केसू, शुकमुख - तोते की चोंच, गुजार्द्ध - भाग-गुंजा का रक्त अद्ध भाग, बन्धुजीवक (जन्तुविशेष), पारापत —कबूतर के चरण और नेत्र, परभृत-कोयल के सुरक्त – अत्यंत लाल लोचन, जपा नामक वनस्पति के पुष्प फूल, प्रज्वलित अग्नि. सुवर्ण के कलश, हिंगुल-सिंगरफ की राशि -- ढेर, इन सब के रूप से भी अधिक शोभायमान है स्व - स्वकीय श्री अर्थात् वर्ण की कान्ति जिस की ऐसे दिवाकर -- सूर्य के यथाक्रम उदित होने पर, उस सूर्य की किरणों की परम्परा-प्रवाह के अवतार से अर्थात् गिरने से अन्धकार के प्रनष्ट होने पर बालातप-उगते हुए सूर्य की जो आतप --धूप तद्र कुंकुम (केसर । से मानो जीवलोक - ससार के खचित - व्याप्त होने पर, लोचनविषय के अनुकाश -विकास (प्रसार) से लोक विकास पान (वर्धमान) अर्थात् अंधकारावस्था में संसार संकुचित प्रतीत होता है और प्रकाशावस्था में वही वधमान-बढ़ता हुअा सा प्रतीत होता है, एवं विशद – स्पष्ट दिखलाए जाने पर कमलाकर - हृद (झील) के कमलो के बोधक - विकास करने वाले, हज़ार किरणों वाले, दिन के करने वाले, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के उत्थित होने पर अर्थात् उदय के अनन्तर की अवस्था को प्राप्त होने पर । -सद्धिं जाव न पत्ता- यहां के जाव-यावत् पद से पृष्ठ ३९६तथा ३९७ पर पढे गये - बहू वासाइ उसलाई माणुस्सगाई-से लेकर-अकयपुराणा एत्ता एक्कतराव न- यहां तक के पदों का परिचायक है । तथा – अब्भणराणाता जाव उवाइणि तर - यहां का जाव यावत् पदों पृष्ठ ३९७ पर पढ़े गये -सुबहुं पुष्फवस्थगंधमल्लालंकारं गहाय-स लेकर -अणु डढेस्सामि ति क श्रोवाइयंयहां तक के पदों का परिचायक है। प्रस्तुत सूत्र में श्रेष्ठिभार्या गंगादत्ता के मनौती - मानतसम्बन्धी विचारों का उल्लेख किया गया है। अब अग्रिम सूत्र में उन की सफलता के विषय में वर्णन करते हैं मूल-तते णं मा गंगादत्ता भारिया मागरदत्तसत्थना हेणं. एतमट्ट अभ (१) छाया - ततः सा गंगादत्ता भार्या सागरदत्तसार्थवाहेनैतमर्थमभ्यनुज्ञाता सती सुबहु पुष्प मित्र० महिलाभिः साई स्वस्माद् गृहात् प्रतिनिष्कामति प्रतिनिष्क्रम्य पाटलिपंडात् नगराद् मध्यमध्येन निर्गच्छति For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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