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सप्तम अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित
पर किया जा चुका है ।
कल्लं जाव जलन्ते- यहां पठित जाव-यावत पद से-पाउप्पभायाए रयणीयफुल्लुप्पल. कमल - कोमलुम्मीलियम्मि अहापण्डुरे पभाए रत्तासोग - पगास - किंसुय-सुअमुह-गु जद्धरागबन्धुजीवग-पारावयचलण-नयण -परहुअ-सुरत्तलोअण-जासुमण-कुसुम--जलिय जलण-तवणिज-कलस-हिंगुलय-निगर - रुवाइरेग-रेहन्त-सस्सिरीए दिवागरे अहक्कमेण उदिए तस्स दिणगरकरपरंपरावयारपारद्धम्मि अंधयारे बालातवकुकुमेणं आंचय व्व जीवलोए लोयणविसयाण्यासविगसंतविसददसियर्याम्म लोए कमलागरसण्डवोहए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिरिम दिणयरे तेअसा- इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को इष्ट है। इन पदों का भावार्थ निनोक्त है -
जिस में प्रभात का प्रकाश हो रहा है, ऐसी रजनी- रात के व्यतीत हो जाने पर अर्थात् रात्रि के व्यतीत और प्रभात के प्रकाशित हो जाने पर, विकसित पद्म और कमल -- हरिणविशेष का कोमल उन्मीलन होने पर अर्थात् कमल के दल खुल जाने पर और हरिण की आंखें खुल जाने, पर अथ-अनन्तर अर्थात् रजनी के व्यतीत होजाने के पश्चात् प्रभात के पाण्डुर - शुक्न होने पर, रक्त अशोक-पुष्पविशेष की कान्ति के समान, किंशुक – केसू, शुकमुख - तोते की चोंच, गुजार्द्ध - भाग-गुंजा का रक्त अद्ध भाग, बन्धुजीवक (जन्तुविशेष), पारापत —कबूतर के चरण और नेत्र, परभृत-कोयल के सुरक्त – अत्यंत लाल लोचन, जपा नामक वनस्पति के पुष्प फूल, प्रज्वलित अग्नि. सुवर्ण के कलश, हिंगुल-सिंगरफ की राशि -- ढेर, इन सब के रूप से भी अधिक शोभायमान है स्व - स्वकीय श्री अर्थात् वर्ण की कान्ति जिस की ऐसे दिवाकर -- सूर्य के यथाक्रम उदित होने पर, उस सूर्य की किरणों की परम्परा-प्रवाह के अवतार से अर्थात् गिरने से अन्धकार के प्रनष्ट होने पर बालातप-उगते हुए सूर्य की जो आतप --धूप तद्र कुंकुम (केसर । से मानो जीवलोक - ससार के खचित - व्याप्त होने पर, लोचनविषय के अनुकाश -विकास (प्रसार) से लोक विकास पान (वर्धमान) अर्थात् अंधकारावस्था में संसार संकुचित प्रतीत होता है और प्रकाशावस्था में वही वधमान-बढ़ता हुअा सा प्रतीत होता है, एवं विशद – स्पष्ट दिखलाए जाने पर कमलाकर - हृद (झील) के कमलो के बोधक - विकास करने वाले, हज़ार किरणों वाले, दिन के करने वाले, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के उत्थित होने पर अर्थात् उदय के अनन्तर की अवस्था को प्राप्त होने पर ।
-सद्धिं जाव न पत्ता- यहां के जाव-यावत् पद से पृष्ठ ३९६तथा ३९७ पर पढे गये - बहू वासाइ उसलाई माणुस्सगाई-से लेकर-अकयपुराणा एत्ता एक्कतराव न- यहां तक के पदों का परिचायक है । तथा – अब्भणराणाता जाव उवाइणि तर - यहां का जाव यावत् पदों पृष्ठ ३९७ पर पढ़े गये -सुबहुं पुष्फवस्थगंधमल्लालंकारं गहाय-स लेकर -अणु डढेस्सामि ति क श्रोवाइयंयहां तक के पदों का परिचायक है।
प्रस्तुत सूत्र में श्रेष्ठिभार्या गंगादत्ता के मनौती - मानतसम्बन्धी विचारों का उल्लेख किया गया है। अब अग्रिम सूत्र में उन की सफलता के विषय में वर्णन करते हैं
मूल-तते णं मा गंगादत्ता भारिया मागरदत्तसत्थना हेणं. एतमट्ट अभ
(१) छाया - ततः सा गंगादत्ता भार्या सागरदत्तसार्थवाहेनैतमर्थमभ्यनुज्ञाता सती सुबहु पुष्प मित्र० महिलाभिः साई स्वस्माद् गृहात् प्रतिनिष्कामति प्रतिनिष्क्रम्य पाटलिपंडात् नगराद् मध्यमध्येन निर्गच्छति
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