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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३६२] श्री विपाक सूत्र [षष्ठ अध्याय "-उम्मुश्कबालभावे जाव विहरति-" यहां पठित जाव - यावत् पद से "-जोव्वगगमणुप्पत्त विन्नायरिणयमेत्त-" इन पदों का ग्रहण करना चाहिए | इन पदों का अर्थ पंचम अध्ययन के पृष्ठ ३२९ पर लिखा जा चुका है ।। "-अन्तराणि-" इत्यादि पदों की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में "- अन्तराणि, श्रवसरान् छिद्राणि-अल्पपरिवारत्वानि, विरहाणि-विजनत्वानि-" इस प्रकार है, अर्थात् अन्तर अवसर का नाम है, छिद्र शब्द अल्पपरिवार का होना-इस अर्थ का बोधक है । अकेला होना-इस अर्थ का परिचायक विरह शब्द है। “-बन्धुसिरीए देवीए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्ने-" इस पाठ के अनन्तर पण्डित मुनि श्री घासी लाल जी म० बन्धुश्री देवी के दोहदसम्बन्धी पाठ का भी उल्लेख करते हैं, वह पाठ निम्नोक्त है "-तए णं तीसे वन्धुसिरीए देवीए तिण्हं मासाणं बहुपडिपुराणाणं इमे एयासवे दोहले पाउन्भूते-धन्नारो णं ताओ अम्मयाओ जाव जाओ णं अप्पणो पइस्स हिययमसेण जाव सद्धि सुरंच ५ जाव दोहलं विणेति । तं जइ णं अहमवि जाव विणिज्जामि त्ति का तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि जाव झियाइ । रायपुच्छा । बन्धुसिरीभणणं । तए णं से सिरिदामे राया तीसे बन्धुसिरीए देवीए तं दोहलं केण वि उवाए विणेइ। तए णं सा वन्धुसिरी देवी सम्पुरणदोहला ५ तं गब्भं सुहंसुहेणं परिवहइ-"। इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है गर्भस्थिति होने के अनन्तर जब बन्धुश्री देवी का गर्भ तीन मास का हो गया तब उसे इस प्रकार का दोहद (गर्भिणी स्त्री का मनोरथ) उत्पन्न हुआ कि वे माताए धन्य है, यावत् अर्थात् पुण्यवती हैं, कृतार्थ हैं, कृतपुण्य हैं, उन्होंने ही पूर्वभव में पुण्योपार्जन किया है, कृतलक्षण हैं-वे शुभ लक्षणों से युक्त हैं और कृतविभव अर्थात् उन्होंने ही अपने विभव-सम्पत्ति को दानादि शुभकार्यों में लगा कर सफल किया है, उन्हीं का मनुष्यसम्बन्धी जन्म और जीवन सफल है, जो अपने २ पति के मांस यावत् अर्थात जो तलित, भर्जित और शूल पर रख कर पकाया गया हो, के साथ 'सुरा, मधु, मेरक, जाति, सीधु और प्रसन्ना, इन छः प्रकार की मदिराओं का एक बार श्रास्वादन करतीं, बार बार स्वाद लेती, परिभोग करती और अन्य स्त्रियों को देती हुई दोहद को पूर्ण करती हैं । सो यदि मैं भी यावत अर्थात् इसी प्रकार से श्रीदाम राजा के हृदय के मांस का छः प्रकार की मदिराओं के साथ उपभोग आदि करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करूं, तो अच्छा हो । ऐसा सोच कर वह उस दोहद के अपूर्ण रहने पर यावत् अर्थात् सूखने लगी. मांसरहित, निस्तेज, रुग्ण, और रोगग्रस्त शरीर वाली एवं हताश होती हुई आर्तध्यानमूलक विचार करने लगी । ऐसी स्थिति में बैठी हुई उस बन्धुश्री को एक समय राजा ने देखा और इस परिस्थिति का कारण पूछा । तब उस बन्धुश्री ने अपना सब वृत्तान्त कह सुनाया । तदनन्तर मथुरानरेश श्रीदाम ने उस बन्धुश्री देवी के उस दोहद को किसी एक उपाय से अर्थात् जिस से वह समझ न सके इस प्रकार अपने हृदयमांस के स्थान पर रखी हुई मांस के सदृश अन्य वस्तुओं के द्वारा पूर्ण किया. फिर बन्धुश्री देवी ऐसा करने से उस दोहद के सम्पूर्ण होने पर, सम्मानित होने (१) सुरा, मधु आदि पदों का अर्थ पृष्ठ १४४ पर लिखा जा चुका है । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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