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चतुर्थ अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
[३०३
तुमं चैव देवाणु ! सगडस्स दारगस्स दण्डं वतेहि । तए गं से सुसेणे मच्चे महचंदे रणा अन्भपुरणाए समाणे सगडं दारयं सुदरिसणं च गणियं एएवं विहाणेणं वज्यं वेति । तं एवं खलु गोतमा ! सगड़े दारए पुरा पोरायाणं दुचिणा जाव विहति ।
इस
- साथ |
पदार्थ - तते णं - तदनन्तर । से- वह । सगडे - शकटकुमार । दारए - बालक । सुदरिमाए - सुदर्शना के । गिहाओ - घर से । निच्छूढे समाणे - निकाला हुआ । अन्नत्थ - अन्यत्र | कत्थइ – कहीं पर भी । सुई वा ३ - स्मृति को अर्थात् वह उस वश्या के अतिरिक्त और किसी का भी स्मरण नहीं कर रहा था, प्रतिक्षण उस के हृदय में उसी की याद बनी रहती थी और रति - प्रीति अर्थात् उस वेश्या को छोड़ कर और कहीं पर भी उसकी प्रीति नहीं थी वह उसी के प्रेम में तन्मय रहा था, एवं घृति - धीरज अर्थात् वेश्या के बिना किसी भी स्थान पर उस को धैर्य नहीं आता था, प्रतिक्षण उस का मन उस के वियोग में अशांत रहता था, तरह वह शकट कुमार स्मृति, रति और धृति को । अलभमाणे - प्राप्त न करता हुआ । अन्नया कयाइ - किसी अन्य समय । रहस्लियं राहसिक - गुप्तरूप से । सुदरसणागि - सुदर्शना के घर में पविसति २ – प्रवेश करता है प्रवेश करके । सुदरिसणार - सुदर्शना के । सद्धिं - उरालाई - - उदार प्रधान । भोग भोगाइ भोगभोगों का अर्थात् मनोज्ञ शब्द रूप आदि का । भुजमाणे – उपभोग करता हुआ । विहरति - सानन्द समय बिताने लगा। इमं च गं - और इधर । सुसेणे मच्चे- सुषेण श्रमात्य - मंत्री । राहाते - स्नान किए हुए । जाव - यावत् । सव्वालंकाविभूसिते - सब प्रकार के अलंकारों - आभूषणों से विभूषित । मस्वग्गुराए - मनुष्यवागुरा - मनुष्य समुदाय से । परिकिवत - परिवेष्टित हुप्रा । जेसे जहां । सुदरिसणागणियाए - सुदर्शना गणिका विहे -- --घर था । तेणेव वहीं पर । उवागच्छति २ ना जाता है, चाकर । सुदरिस - - सुदर्शना । गणियाए - गणिका के । सद्धि-साथ । उगलाई - उदार - प्रधान । भोगभोगाइ - काम - भोगों का । भुजमाण - उपभोग करते हुए सगड़ दायं - शकटकुमार बालक को । पासति २ - देखता है, देख कर । सुरुत े - आशुरुन्त अत्यन्त क्रुद्ध हुआ । जाव - यावत् । मिलिमिलीमाणे - मिस २ करता हुआ, अर्थात् दांत पीसता हुआ । खिलाड़- - मस्तक पर 1 तिवलियं भिउडिं - तीन वल वाली भृकुटी (तिउड़ी) को । साहट्टु -चढा कर । पुरिसेहिं - अपने पुरुषों के द्वारा । सगडं शकटकुमार । दारयं बाल का । गेराहावेति २ - कड़ा लेता है. पकड़ा कर । ट्टि - यष्टि से । जाब - यावत उस को । महियं - मथित अत्यन्तात्यन्त ताडित | करेति करता है । वोड़गबंधण अवको टकबन्धन - जिस बन्धन में ग्रीवा को पृष्ठ भाग में ले जाकर हाथों के साथ बान्धा जाए, उस बंधन से युक्त । के । जेणेत्र - जहां पर । महचंदे राया - महाचन्द्र राजा था: ते शेव - वहीं पर उवागच्छति २श्राता श्राकर । करयज० जाव दोनों हाथ जोड़ यावत् अर्थात् मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि कर के । जाव - यावत् । एवं - इस प्रकार । वयासी कहने लगा । एवं खलु - इस प्रकार निश्वय ही । सामी ! – हे स्वामिन् ! | सगड़े- शकटकुमार | दारय- बालक ने । ममं - मेरे । अंतेउरंसि श्रन्त: पुर - रणवास में प्रविष्ट होने का । श्रवरद्ध - अपराध किया है । तते णं - तदन(१) अट्ठ – इस पद का रूप र्याष्ट किस कारण से किया गया है ? इस का उत्तर पृष्ठ १७६ की टिप्पण में दिया गया है ।
का पाप
।
कारेति २ – कराता है, करा
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