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श्री विपाक सूत्र
[चतुर्थ अध्याय
दुष्प्रत्यानन्द अर्थात् बड़ी कठिनाई से प्रसन्न होने वाला जीव अाया हुआ है, इसलिये तुम्हें ऐसा पापपूर्ण दोहद उत्पन्न हुआ है। अच्छा. इस का भला हो, ऐसा कहकर उस सुभद्र साथवाह ने किसी उपायविशेष से अर्थात् मांस और मदिरा के समान आकार वाले फलों और रसो को देकर भद्रा के दोहद को पूर्ण किया । तब दोहद के पूर्ण होने पर वाञ्छिा वस्तु की प्राप्ति हो जाने के कारण, उसका सम्मान हो जाने पर. समस्त मनोरथों के पूर्ण होने से अभिलाषा की निवृत्ति होने पर तथा इच्छित वस्तु के खा लेने पर प्रसन्नता को प्राप्त हुई भद्रा सार्थवाही उस गर्भ को सखपूर्वक धारण करने लगी।
प्रस्तुत सूत्र में छरिणक छागलिक के जीव का सुभद्रा के गर्भ में आना, उसका जन्म लेने पर शकट कुमार के नाम से प्रसिद्ध होना तथा माता पिता के देहान्त एवं घर से निकालने तथा सुदर्शना के घर में प्रविष्ट होने और वहां से निकाले जाने वादे का सविस्तर वर्णन किया गया है। सुषेण मंत्री के द्वारा सुदर्शना के वहां से निकाले जाने पर शकट कुमार की क्या दशा हुई और उसने क्या किया तथा उसका अन्तिम परिणाम क्या निकला । अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं -
मल-' तते णं से सगड़े दारए सुरिसणाए गिहाओ निच्छूढे समाणे अन्नत्थ कत्था सुई वा ३ अलभमाणे अन्नया कयाइ रहस्सियं सुदरिसणागिह अणुपविसति २, सुदरिसणाए सद्धि उरालाई भोगभागाई भुजमाणे विहरति । इमं च णं सुसेणे अमच्चे एहाते जाव सव्वालंकारांवभूसिते मणुस्सवागुराए परिक्खित्ते जेणेव सुदरिसणागणियाए गिहे तेणेव उवागच्छति २ सगडं दारयं सुदरिसणाए गणियाए सद्धिं उरालाई भोगभागाई भजमाणं पामति २ आसुरुत्ते जाव मिसिमिसीमाणे तिवलियं भिउडिं णिडाले साहट्ट सगडं दारयं पुरिसेहिं गेएहावेति २ अद्वि० जाव महियं करेति २ अवोडगबंधणं कारेति २ जेणेव महचंदे राया तेणेव उवागच्छति २ करयल० जाव एवं वयासी-एवं खलु सामी! सगडे दारए ममं अंतेउरसि अवरद्ध । तते णं महचंदे राया सुसेणं अमच्चं एवं वयासी
(१) छाया-तत: स शकटो दारकः सुदर्शनाया गृहाद् निष्कासितः सन् अन्यत्र कुत्रचित् स्मृति वा ३ अलभमानोऽन्यदा कदाचिद् राहस्यिक सुदर्शनागृहं अनुप्रविशति २ सुदर्शनया सार्द्ध मुदारान् भोगभोगान् भुजानो विहरति । इतश्च सुषेणोऽमात्य: स्नातो यावद सर्वालंकारविभूषितो मनुष्यवागुरया परिक्षिप्तो यत्रैव सुदर्शनागणिकाया गृहं तवैवोपागच्छति २ शकटं दारकं सुदर्शनया गणिकया सार्द्धमुदारान् भोगभोगान् भुजानं पश्यति २ अाशुरुतो यावत् मिसि मसीमाण: (धा ज्वलन् ) त्रिवलिकां भृकुटिं ललाटे संहृत्य शकटं दारकं पुरुषः ग्राहयति २ यष्टि० यावत् मथितं कारयति २ अवकोटकबंधनं कारयति २ यत्रैव महाचंद्रो राजा तत्रैवोपागच्छति २ करतल . यावद् एवमवादीत् -एवं खलु स्वामिन् ! शकटो दारकः ममान्तःपुरेऽपराधः। ततः स महाचंद्रो राजा सुषेणममात्यमेवमवादीत्-त्वमेव देवानुप्रिय ! शकटस्य दारकस्य दण्डं वर्त्तय । तत: स सुषेणोऽमात्यः महाचन्द्रेण राजाऽभ्यनुज्ञातः सन् शकटं दारकं सुदर्शनां च गणिकां एतेन विधानेन वध्यमाज्ञापयति । तदेवं खलु गौतमः ! शकटो दारकः पुरा पुराणानां दुश्चीर्णानां यावद् विहरति ।
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