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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २७८] श्री विपाक सूत्र [तीसरा अध्याय अमानुषिक व्यवहार किया गया है, तथा उसे जो हृदयविदारक दण्ड दिया गया है, वह सब उसके अपने ही निर्णय अण्डवाणिज के भव में किये गये मांसाहार एवं अनार्य व्यवसाय से उत्पन्न कर्मों के कारण तथा इस भव में ग्रामों का जलाना, नगरों को दग्ध करना, पथिकों को लूट कर उनके प्राणों का अन्त कर डालना तथा उन्हें दाने २ का मोहताज बना देना इत्यादि भयानक दानवीय पाप कर्मों का ही कटु परिणाम है । इस लिये प्रत्येक सुखाभिलाषी पुरुष को मांसाहार और उसके हिंसापूर्ण व्यवसाय से विरत रहने के साथ २ ग्रामघातदि दुष्कर्मों से अपने आप को सदा बचाना चाहिये और जहां तक बन सके दुःखितों के दुःख को दूर करना, निराश्रितों को आश्रय देना आदि सत्कार्यों में अधिकाधिक भाग लेना चाहिये । तभी मानव जीवन की सफलता है एवं कृतकृत्यता है। ॥ तृतीय अभ्याय समाप्त ॥ For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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