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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [२०७ उसी तरह उसे भी दुख देने पर दुःखानुभूति और सुख देने पर सुखानुभूति होती है । फिर भले ही उसकी सुखानुभूति एवं दुःखानुभूति की सामग्री हमारी दुःखसामग्री एवं सुखसामग्री से भिन्न हो । परन्तु अनुभव की अवस्थिति दोनों में बराबर चलती है। अतः अण्डों को नष्ट कर देना या खा जाना एवं उसके क्रयविक्रय का अर्थ है - प्राणियों के जीवन को 'लूट लेना । किसी के जीवन को लूट लेना पाप है जो कि मानवता के लिये सब से बड़ा अभिशाप है । पाप दुःखों का उत्पन्न करने वाला होता है, एवं श्रात्मा को जन्म मरण के परम्परा - चक्र में धकेलने का प्रबल एवं अमोघ (निष्फल न जानेवाला) कारण बनता । तभी तो अभग्न सेन के जीव को निर्णय अण्डवाणिज के भव में किये गये अंडों के भक्षण एव उन के श्रनार्य एवं अधमपूर्ण व्यवसाय के कारण ही सात सागरोपम जैसे लंबे काल तक नरक में नारकीय स एवं भीषणाति भीषण दुःखों का उपभोग करना पड़ा था अतः सुखाभिलाषी एवं विचारशील पुरुष को प्रस्तुत अध्ययन में दी गई शिक्षा से अपने को शिक्षित करते हुए अण्डों का पाप - पूर्ण भक्षण एवं उनके हिंसक और अनार्य व्यवसाय से सदा दूर रहना चाहिये, अन्यथा निर्णय वाणिज के जीव की भान्ति नारकीय भीषण यातनाओ से अपने को बचाया नहीं जा सकेगा । । (२) धन जनादि के अभिमान से मत्त हुए अज्ञानी जीव जिस समय पापकों का आचरण करते हैं तो वे उस समय बड़ी खुशियां मनाते हैं और सत्पुरुषों के अनेकों बार समझाए जाने पर भी उन पाप कर्मों के दुःखद परिणाम - फल की ओर उनका तनिक भी ध्यान नहीं जाने पाता, प्रत्युत पापपूर्ण प्रवृत्तियों को ही अपने जीवन का सर्वोत्तम लक्ष्य बनाते हुए रातदिन पापाचरणों में संलग्न रह कर वे अपने इस देवदुर्लभ मानवभव को नष्ट कर देने पर तुले रहते हैं, परन्तु जब उन्हें उन हिंसा - पूर्ण दुष्प्रवृत्तियों से उत्पन्न पापक्रमों का कटु कल 'भुगतना पड़ता है, तब वे त्राण एवं अशरण होकर रोते हैं, चिल्लाते हैं और अत्यधिक दुर्दशा को प्राप्त करने के साथ २ अन्त में नरकों में नाना प्रकार के भीषण दुःखों का उपभोग करते हैं । पुरिमताल नगर के प्रत्येक चत्वर पर बन्दी बने हुए अभग्नपेन चोरसेनापति के साथ जो बजाय तरल पदार्थ निकलता है। ऐसी स्थिति में यह कैसे कहा जा सकता है कि अण्डे में जीव है ? इस आशंका का उत्तर निनोक्त है - डे से निसृत पदार्थ तरल है इस लिये उस में जीव नहीं है, यह कोई सिद्धान्त नहीं है, क्योंकि अण्डे जैसी ही स्थिति मनुष्य के गर्भ की भी होती है। तात्पर्य यह है कि यदि एक दो या तीन मास के गर्भ का पतन किया जाए तो गर्भाशय से मात्र रक्त का ही स्राव होता है, तथापि ऐसे रक्तस्वरूप गर्भ का पात करना जहां आध्यात्मिक दृष्टि से पञ्चेन्द्रियवध है महापाप है, वहां कानून ( राजनियम ) की दृष्टि से वह निषिद्ध एवं दण्डनीय है । गर्भपात का निषेध इसी लिये किया जाता है कि कुछ काल के अनन्तर उस गर्भ में से किसी प्राणी का विकसित एवं परिवृद्ध रूप उपलब्ध होना था। ठीक इसी प्रकार अण्डे से भी समयान्तर में किसी गतिशील एवं सांगोपांग प्राणी का प्रादुर्भाव अनिवार्य होता है । तब यह कहना कि अण्डे में जीव नहीं होता, यह एक भयंकर भूल है । वैज्ञानिक लोग बतलाते हैं कि यदि सूक्ष्म पदार्थों का निरीक्षण करने वाले यन्त्रों द्वारा के भीतर के तत्व का निरीक्षण किया जाए तो उस में जीव की सत्ता का अनुभव होता है। For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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