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दूसरा अध्याय]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
"-कृतकौतुकमगलप्रायश्चित्त-" इस पद का अर्थ है - दुष्ट स्वप्न आदि के फल को निष्फल करने के लिये जिस ने प्रायश्चित्त के रूप में कौतुक-कपाल पर तिलक तथा अन्य मांगलिक कृत्य कर रखे हैं।
"मणुस्सवग्गुरापरिक्खित्त" इस पदकी व्याख्या वृत्तिकार ने निम्न प्रकार से की है___“ मनुष्याः वागुरेव मृगबन्धनमिव सर्वतो भवनात् तया परिक्षिप्तो यः स तथा" अर्थात् मृग के फंसाने के जाल को वागुरा कहते हैं, जिस प्रकार वागुरा मृग के चारों ओर होती है, ठीक उसी प्रकार जिसके चारों ओर श्रात्मरक्षक मनुष्य ही मनुष्य हो दूसरे शब्दों में मनुष्यरूप वा. गुरा से घिरे हुए को मनुष्यवागुरापरिक्षिप्त कहते हैं। ____"-आसुरुत-" इस पद के वृत्तिकार ने दो अर्थ किये हैं जैसे कि -
“आशु-शीघ्र रुतः । क्रोयेन विमोहिता यः स आशुरुप्तः, आसुरं वा असुरसत्कं कोपेन दारुणत्वाद् उक्त भणितं यस्य स ालरोक्तः” अर्थात् 'श्राशु' इस अव्ययपद का अर्थ है - शीघ्र, और रुप्त का अर्थ है क्रोध से विमोहित तात्पर्य यह है कि जो शीघ्र ही क्रोध से विमोहित अर्थात् कृत्य और अकृत्य के विवेक से रहित हो जाय उसे प्रारुप्त कहते हैं । "आसुरुत्त" का दूसरा अर्थ है-क्रोधाधिक्य से दारुण भयंकर होने के कारण असुर राक्षस) के समान उक्त-कथन है जिस का, अर्थात् जिस की वाणी क्रोधी राक्षसों जैसी हो उसे “आशुरुक" कहा जाता है । सारांश यह है कि "आसुरुत्त" के "श्राशुरुप्तः" और "-आयुरोक्तः" ये दो संस्कृत प्रतिरूप होते हैं। इस लिए उस से यहां पर दोनों ही अर्थ विवक्षित हैं।
तथा “श्रासुरुत्त" के आगे दिये गये ४ के अंक से - 'रुटे, कुविए, चंडिक्किप' और "मिसिमिसीमाणे-" इन पदों का ग्रहण कराना सूत्रकार को अभीष्ट है। इन पदों से मित्र नरेश के क्रोधातिरेक को बोधित कराया गया है ।
"--तिवलियभिउडि निडाले साहद्द - इन पदों की व्याख्या वृत्तिकार ने-त्रिवलिका भृकुटिं लोचनविकारविशेष ललाटे संहृत्य-विधाय-" इन शब्दों से की है । अर्थात् त्रिवलिका-तीन वलिओं-रेखाओं से युक्त को कहते हैं । भृकुटि -लोचनविकारविशेष भौंह को कहते हैं । तात्पर्य यह है कि मस्तक पर तीन रेखाओं वाली भृकुटि (तिउड़ी) चढ़ा कर।
" - अवोडगबंधणं-अवकोटकबन्धनं-" की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में निम्नलिखित है .
-अवकोटनेन च ग्रीवायाः पश्चाभागनयनेन बन्धनं यस्य स तथा तम् - " अर्थात् जिस बन्धन में ग्रीवा को पृष्ठ-भाग में ले जा कर हाथों के साथ बान्धा जाए उस बन्धन को अवकोटक - बन्धन कहते हैं ।
प्रस्तुत सूत्र में यह कथन किया गया है कि महीपाल मित्र ने उज्झितक कुमार को मथ डाला अर्थात् जिस प्रकार दही मंथन करते समय दहो का प्रत्येक कण २ मथित हो जाता है ठीक उसी प्रकार उज्झितक कुमार का भी मन्थन कर डाला तात्पर्य यह है कि उसे इतना पीटा इतना मारा कि उसका
(१) इन पदों की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में निम्नोक्त है
रुष्टः राषवान्, कुपितः मनसा कोपवान् चाण्डिक्यितः दारुणीभूतः मिसिमिसीमाणो इत्यतः क्रोधज्यालया ज्वलन्निति बोध्यम् । अर्थात् -रोष करने वाला रुष्ट, मन से क्रोध करने वाला कुपित, क्रोधाधिक्य के कारण भीषणता को प्राप्त चारिडक्यित, और क्रोध की ज्वाला से जलता हुआ अर्थात् दान्त पीसता हुआ मिस मिसोमाण कहलाता है !
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