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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १७६] श्रो विपाक सूत्र [दूसरा अध्याय भृकुटि ( तीन रेखाओं वाली नि उडि ) चढ़ा कर अपने अनुचर पुरुषों द्वारा उज्झितक कुमार को पवड़वाया पकड़वा कर 'यष्टि, मुष्टि (मुक्का), जानु. और कूपर के प्रहारों से उसके शरीर को संभग्न, चूर्णित और मथित कर अवकोटक बन्धन से बान्धा और बान्ध कर पूर्वोक्त रीति से वध करने योग्य है. ऐमी आज्ञा दा । हे गौतम ! इस प्रकार उज्झितक कुमार पूर्वकृत पुरातन कर्मों का यावत् फलानुभत्र करना हा विहरण करता है-समय यापन कर रहा है। टीका-जैसा कि ऊपर बतलाया गया है कि उज्झितक कुमार को उसके साहस के बल पर सफलता तो मिली, उसे कामध्वजा के सहवास में गुप्तरूप से रहने का यथेष्ट अवसर तो प्राप्त हो गया, परन्तु उसको यह सफलता अचिरस्थायी होने के अतिरिक्त असह्य दुःख - मूलक ही निकली । उस का परिणाम नितान्त भयंकर हुआ। उज्झितक कुमार को इतना दु:ख कहां से मिला ? कैसे मिला ? किसने दिया ? और किस अपराध के कारण दिया ? इत्यादि भगवान गौतम के द्वारा पूछे गये प्रश्नों के समाधानार्थ ही सूत्रकार ने प्रस्तुत कथा सन्दर्भ का स्मरण किया है । जिस समय उज्झितक कुमार कामध्वजा के घर पर उसके साथ कामजन्य विषय-भोगों के उपभोग में निमग्न था उसो समय मित्रपरेश वहां प्राजाते हैं और वहां उझतक कुमार को देखकर क्रोध से आग बबूला होकर उसे अनुचरों द्वारा पवडवाकर खूब मारते पीटते तथा अवकोटक बन्धन से बन्धवा देते हैं और यह पूर्वोक्त रीति से वध करने के योग्य है, ऐसो आज्ञा देते हैं। -" एहाते जाव पायच्छित्ते - " यहां पर पठित " -जाव-यावत्-" पद से "-कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छिते-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन पदों में से कृतबलिकर्मा के तीन अर्थ उपलब्ध होते हैं, जैसे कि - (१) शरीर की स्फूर्ति के लिये जिसने तैल श्राद का मर्दन कर रखा है । (२) काक आदि पक्षियों को अन्नादि दानरूप बलिकर्म से निवृत्त होने वाला । (३) जिसने देवता के निमित्त किया जाने वाला कर्म कर लिया है। १) अटि-शब्द के अम्धि और यति ऐसे दो संस्कृत रूप बनते हैं । अस्थि शब्द हड्डी का परिचायक है ओर यष्टि शब्द पे लाडो का बोध होता है । यदि प्रस्तुत प्रकरण में अहि-का अस्थि यह रूप ग्रहण किया जावे तो प्रश्न उपस्थित होता है कि -इस से क्या विवक्षित है । अर्थात् यहां इस का क्या प्रयोजन है ? क्यों कि प्रकृत प्रकरणानुसारी अस्थिसाध्य प्रहारादि कार्य तो मुष्टि (मुक्का), जानु घुटनः) और कूपर (कोहनो) द्वारा संभव हो ही जाते हैं, और सूत्रकार ने भी इन का ग्रहण किया है, फिर अस्थि शब्द का स्वतन्त्र ग्रहण करने में क्या हार्द रहा हुआ है ? यदि अस्थि शब्द से अस्थि मात्र का ग्रहण अभिमत है तो मुष्टि आदि का ग्रहण क्यों ! इत्यादि प्रश्नों का समाधान न होने के कारण हमारे विचारानुसार प्रस्तुत प्रकरण में सूत्र. कार को अहि पद से यष्टि यह अथ अभिमत प्रतीत होता है। प्रस्तुत में मार पीट का प्रसंग होने से यह अर्थ अधिक संगत ठहरता है । ____ व्याकरण से भी अहि पद का यष्टि यह रूप निष्पन्न हो सकता है । सिद्धहैमशब्दानुशासन के अष्टमाध्याय के प्रथमपाद के २४५ सूत्र से यष्टि के यकार का लोप हो जाने पर उसी अध्याय के द्वितीय पाद के ३०५ सूत्र से ष्ठ के स्थान पर ठकार, ३६० सूत्र से टकार को द्वित्व और ३६१ सूत्र से प्रथम ठकार को टकार हो जाने से अट्ठि ऐसा प्रयोग बन जाता है । रहस्यं तु केवलिगम्यम् । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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