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दूसरा अध्याय }
हिन्दी भाषा टीका सहित |
" बालभावे जाव जाते - " यहां पठित " - जाव - यावत् गयमित्ते जोवणमणुपपत्त े - " इन पदों का ग्रहण होता है । इन का दिया जा चुका है ।
है । समान श्राचार
सदा एकान्त हित का उपदेश देने वाले सखा को मित्र कहते विचार वाले जाति समूह को ज्ञाति कहते हैं । माता, पिता, पुत्र, कलत्र ( स्त्री ) प्रभृति को निजक कहते हैं । भाई, चाचा, मामा, आदि को स्वजन कहते हैं । श्वशुर, जामाता, साले, बहनोई आदि को सम्बंधी कहते हैं । मन्त्री, नौकर, दास, दासी आदि को परिजन कहते हैं । सूत्रकार गोत्रास की अग्रिम जीवनी का वर्णन करते हैं -
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पद से – विराणायपरिभावार्थ पृष्ठ ९७ पर
मूल - ' तते गं से सुनंदे राया गोत्तासं दारयं अन्नया कयाती सयमेव कूडग्गाहत्ताए ठवेति । तते गं से गोत्तासे दारए कूडग्गाहे जाए यावि होत्या, अहम्मिए जाव दुपडियादे । तते गं से गोत्तासे दारए कूडग्गाहे कल्लाव ल्लि अड्ढरत्तकालसमयंसि एगे वीए सन्नद्ध - बद्धकवर जात्र गहियाउहपहरणे सयातो गिहाता निज्जाति, जेणव गोमंडवे तेणेव उवा, बहूणं णगरगोरूवाणं मणा० जात्र वियगेति २ जेणेव सए गिहे तेणेव उवा० । तते गं से गोत्तासे कूड० तेहि बहूहिं गोमंसेहि सोल्लेहि जाव सुरं च ५ सा० ४ विहरति । तते गं से गोत्तासे कूड़० एयकम्मे प०वि० स० सुबहु पावं कम्मं समज्जिणित्ता पंच वाससयाई परमाउं पालयित्ता दुहट्टोवगते कालमासे काल किच्चा दोच्चाए पुढ़वीए उक्कासं तिसागरो० रइयत्ताए उववन्ने ।
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पदार्थ - तते गं -- तदनन्तर । से सुनंदे राया- उस सुनन्द नामक राजा ने । श्रन्नया कथाति - श्रन्यदा कदाचित् - अर्थात् किसी अन्य समय पर । गोत्तासं दारयं - गोत्रास नामक बालक को । सयमेव - स्वयं अपने आप ही । कूड़ग्गा हत्तार – कूटग्राहित्वेन - कूटग्राहरूप से । ठवेति - स्थापित किया
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(२) छाया - ततः स सुनन्दो राजा गोत्रासं दारकमन्यदा कदाचित् स्वयमेव कूटग्राहतया स्थापयति । ततः स मात्रासो दारकः कूटग्राहो जातश्चाप्यभवत् अधार्मिको यावत् दुष्प्रत्यानंदः ततः स गोत्रासो दारकः कूटग्राहः प्रतिदिनं अर्द्धरात्रकालसमये एकोऽद्वितीयः सन्नद्धबद्धकवचो यावद् गृहीतायुधप्रहरणः स्वस्माद् गृहाद् निर्याति, यत्रैव गोमंडपस्तत्रैवोवा ० बहूनां नगर गोरूपाणां सनाथानां यावत् विकृन्तति, विकृत्य यत्रैव स्वं गृहं तत्रैवोपा० । ततः स गोत्रासः कूट० तैर्बहुभिर्गोमांस : शूल्ययवत् सुरां च ५ स्वा० ४ विहरति । ततः स गोत्रासः कूट० एतत्कर्मा प्र० [ एतत्प्रधानः ] वि० [ एतदुविद्यः | स० [ एतत्समाचार: ] सुबहु पापं कर्म समय पंच वर्षशतानि परमायुः पालयित्वा आत - दुःखार्त्तापगतः कालमासे कालं कृत्वा द्वितीयायां पृथिव्यां उत्कृष्टत्रिसागरो० नैरयिकतयोपपन्नः ।
For Private And Personal
(१) "6 "" - यावत्- पद से " - धर्मानुगः, धर्मिष्ठः, अधर्माख्यायी, अधर्मप्रलोकी, धर्मप्ररजनः, धर्मशीलसमुदाचारः, अधर्मेण चैव वृत्तिं कल्पयन् दुश्शीलः दुर्वतः - इन शब्दों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत सूत्र के पृष्ठ ५५ पर कर गई है ।