SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १४८] श्री विपाक सूत्र - [ दूसरा अध्याय है । तदनन्तर वह उत्पला उन अनेकविध शूल्य ( शूजा - प्रोन) आदि गामांसों के साथ सुरा आदि को आस्वादन प्रस्वादन आदि करती हुई अपने दोहद को पूर्ति करती है इस भांति सम्पूर्ण दोहद वाली, सम्मानित दोहद वाली, विनीत दोहद वाली, व्यांच्छन्न दोहद वाली, और सम्पन्न दोहद वाली वह उत्पला कूटग्राही उस गर्भ को सुख पूर्वक धारण करती है । टीका - उत्पला को अपने पति देव की तर्फ से दोहद - पूर्ति का श्राश्वासन मिला जिस से उसके हृदय को कुछ सान्त्वना मिली, यह गत सूत्र में वर्णन किया जा चुका है । 1 उत्पला को दोहदपूर्ति का वचन दे कर भीम वहां से चल दिया, एकांत में बैठकर उत्पला की दोहद-पूर्ति के लिये क्या उपाय करना चाहिये १ इस का उसने निश्चय किया । तदनुसार मध्यरात्रि के समय जब कि चारों तर्फ सन्नाटा छाया हुआ था, और रात्रि देवी के प्रभाव से चारों ओर अन्धकार छाया हुआ था, एवं नगर की सारी जनता निस्तब्ध हो कर निद्रादेवी की गोद में विश्राम कर रही थी, भीम अपने बिस्तर से उठा और एक वीर सैनिक की भांति अस्त्र शस्त्रों से लैस हो कर हस्तिनापुर के उस गोमंडप में पहुंचा, जिस का कि ऊपर वर्णन किया गया है। वहां पहुँच कर उसने पशुओं के ऊधस् तथा अन्य अंगोपांगों का मांस काटा और उसे लेकर सीधा घर की ओर प्रस्थित हुआ, घर में आकर उसने वह सब मांस अपनी स्त्री उत्पला को दे दिया । उत्पला ने भी उसे पका कर सुरा आदि के साथ उसका यथारुचि व्यवहार किया अर्थात् कुछ खाया, कुछ बांटा और कुछ का अन्य प्रकार से उपयोग किया । उस से उस के दोहद की यथेच्छ पूर्ति हुई तथा वह प्रसन्न चित्त से गर्भ का उद्वहन करने लगी । सूत्रगत "एगे" और "अबीर" ये दोनों पद समानार्थक से हैं, परन्तु टीकार महानुभाव भावार्थ एकाकी - सहायक से रहित और "अबीए" इस पद का धर्मरूप सहायक से शून्य, यह अर्थ किया है [ "एगे” सि सहायताभावात् । "अबीए" त्ति धर्म रूपसहायाभावात् ] तथा "सरणद्ध० जाव पहरणे" और "गोरुवाणं जाव वसभाण" एवं "छिंदति जाव अप्पेगइयाणं - " इन स्थलों का “ - जाव यावत् -' पद प्रकृत द्वितीय अध्ययनं में ही पीछे पढ़े गये सूत्रपाठों का स्मारक है । पाठक वहीं से देख सकते है । उत्पला अपने मनोभिलषित पदार्थों को प्राप्त कर बहुत प्रसन्न हुई । उस के दोहद की यथेच्छ पूर्ति हो जाने उसे असीम हर्ष हुआ । इसी से वह उत्तरोत्तर गर्भ को आनन्द पूर्वक धारण करने लगी । सूत्रकार ने भी उत्पला की आंतरिक अभिलाषापूर्ति के सूचक उपयुक्त शब्दों का उल्लेख करके उस का समर्थन किया है । तथा उत्पला के विषय में जो विशेषण दिये हैं उनमें टीकाकार ने निम्नलिखित अन्तर दिखाया है "एगे" का "" ".. संपुराणदोहल ति - " समस्त - बांछितार्थ - पूरणात् । " सम्माणियदोहल त्ति" वांछितार्थसमानयनात् । “विणीयदोहल ति” वाञ्छाविनयनात् । " विद्दिन्नदोहल त्ति" विवक्षितार्थ – वांछानुत्रन्धविच्छेदात् । "संपन्नदोहल त्ति" विवक्षितार्थभोगसंपाद्यानन्दप्राप्तेरिति, अर्थात् उत्पला कूटग्राहिणी को समस्त वांछित पदार्थों के पूर्ण होने के कारण सम्पूर्ण पोहदा, इच्छित पदार्थों के समानयन के कारण सम्मानितदोहदा, इच्छा - विनयन के कारण विनीतदोहदा, विवक्षितपदार्थों की वांछा के अनुबन्ध-विच्छेद ( परम्परा - विच्छेद) के कारण व्युच्छिन्नदोहदा, तथा इच्छित पदार्थों के भोग उपलब्ध कर सानन्द होने के कारण सम्पन्नदोहदा कहा गया है। 1 For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy