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दूसरा अध्याय]
हिन्दी भाषा टोका सहित ।
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वही सफल होता है. वही उत्तरोत्तर विकास को प्राप्त करता है, अन्यथा नहीं । इस लिये जो शिष्य गुरुचरणों में रह कर उन से विनय-पूर्वक ज्ञानोपार्जन करने का अभिलाषी होता है, उस पर गुरुजनों की भी असाधारण कृपा होती है । उसी के फल स्वरूप वे उसे ज्ञानविभूति से परिपूर्ण कर देते हैं। इस विधि से जिस व्यक्ति ने अपने अात्मा को ज्ञान-विभूति से अलंकृत किया है, वही दूसरों को अपनी ज्ञान - विभति के वितरण से उन की अज्ञान – दरिद्रता को दूर करने में शक्तिशाली हो सकता है। इस लिये प्रत्येक विद्यार्थी को गुरुजनों से विद्याभ्यास करते समय हर प्रकार से विनयशील रहने का यत्न करना चाहिये. अन्यथा उसका अध्ययन सफल नहीं हो सकता ।
जम्बू स्वामी के उक्त प्रश्न के उत्तर में श्री सुधर्मा स्वामी ने “ एवं खलु जंबू ! " इत्यादि सूत्र में जो कुछ फरमाया है, उसका विवरण इस प्रकार है
हे जम्बू ! वाणिजग्राम नाम का एक सुप्रसिद्ध और समृद्धिशाली नगर था, उस नगर के ईशान कोण में दूतिपलाश नाम का एक रमणीय उद्यान था, उस उद्यान में एक यक्षायतन भी था जो कि सुधर्मा यक्ष के नाम से प्रसिद्ध था । वहां-नगर में मित्र नाम के एक राजा राज्य करते थे । जो कि पूरे वैभवशाली थे । उन की पटराणी का नाम श्री देवी था, वह भी सर्वांग-सन्दरी और पतिव्रता थी। इस के अतिरिक्त उस नगर में कामध्वजा इस नाम की एक सुप्रसिद्ध राजमान्य गणिका-वेश्या रहती थी जिस के रूपलावण्य और गुणों का अनेक विशेषणों द्वारा सूत्रकार ने वर्णन किया है ।
वाणिज ग्राम-इस शब्द का अर्थ, षष्ठी तत्पुरुष समास से वाणिजों-वैश्यों का ग्राम ऐसा होता है, किन्तु प्रस्तुत सूत्र में “वाणिज ग्राम" यह नगर का विशेषण है, इसलिये *व्यधिकरण बहुव्रीहि समास से उसका अर्थ यह किया जा सकता है-जिस में वाणिजों-व्यापारियों का ग्राम-समूह रहे उसे “वाणिजग्राम" कहते हैं । तथा नगर शब्द की व्याख्या निम्नलिखित शब्दो में इसप्रकार वर्णित है
पुण्यपापक्रियाविः दद्यादानप्रवर्त्तकैः, कलाकलापकुशलैः सर्व-वर्णैः समाकुलम्, भाषाभिर्विविधाभिश्च युक्तं नगरमुच्यते ।
अर्थात् - पुण्य और पापकी क्रियाओं के ज्ञाता, दया और दान में प्रवृत्ति करने वाले, विविध कलात्रों में कुशल पुरुष, तथा जिस में चारों वर्ण निवास करते हों और जिस में विविध भाषायें बोली जाती हों उसे नगर कहते हैं । इसकी निरुक्ति निम्नलिखित है
"नगरं न गच्छन्तीति नगाः वृक्षाः पर्वताश्च तद्वदचालत्वादुन्नतत्वाच्च प्रासादादयोऽपि, ते सन्ति यस्मिन्निति नगरम् ।
हमारे विचार में प्रथम वाणिज नामक एक साधरण सा ग्राम था। कुछ समय के बाद उस में व्यपारी लोग बाहिर से आकर निवास करने लगे । व्यापार के कारण वहां की जन-संख्या में वृद्धि होने लगी एक समय वह अाया कि जब यह ग्राम व्यापार का केन्द्र-गढ़ माना जाने लगा, और उस में जन-संख्या काफी हो गई । तब यहां राजधानी भी बन गई, उसके कारण इस का वाणिज-ग्राम नाम न रह कर वाणिजग्राम – नगर प्रसिद्ध हो गया । आज भी हम ग्रामों को नगर और नगरों को ग्राम होते हुए प्रत्यक्ष देखते है। जिस की जन-संख्या प्रथम हजारों की थी आज उसी की जन-संख्या लाखों तक पहुँच गई है। समय बड़ा विचित्र है। उसकी विचित्रता सर्वानुभव -सिद्ध है । तथा उसी विचित्रता के आधार पर ही हमने यह
• वाणिजानां ग्रामः-- समूहो यस्मिन् स वाणिजग्राम इति व्यधिकरणबहुव्रीहिः ।
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