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१०६ ]
श्री विपाक सूत्र -
दूसरा अध्याय
कामध्वजा नाम की एक । गणिया-गणिका । होत्था थी, तथा । बहूणं गणिया सहरसाणं - हज़ारों गणि काओं का । हेवच्चं - श्राधिपत्य-स्वामित्व करती हुई। जाव - यावत् । विहरति - समय व्यतीत कर
रही थी ।
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मूलार्थ - हे भगवन् ! यदि मोक्ष-संप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के प्रथम अध्ययन का यह ( पूर्वाक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है तो भगवन् ! विपाकश्रत के द्वितीय अध्ययन का मोक्षसम्प्रात श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने क्या अर्थ कथन किया है । तदनन्तर अर्थात इस प्रश्न के उत्तर में सुधर्मा अनगार ने जग्बू नगार के प्रति इस प्रकार कहा कि हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में वाणिजग्राम नाम का एक समृद्धिशाली नगर था । उस नगर के ईशान कोण में दूतिपलाश नाम का एक उद्यान था उस उद्यान में सुधर्मा नामक यक्ष का एक यज्ञायतन
था ।
उस नगर में मित्र नाम का राजा और उसकी श्री नाम की राणी थी । तथा उस नगर में अन्यून पंचेन्द्रिय शरीर युक्त यावत सुरूपा - रूपवती, ७२ कलाओं में प्रवीण, गणिका के ६४ गुणों से युक्त, २९ प्रकार के विशेष विषय के गुणों में रमण करने वाली, २१ प्रकार के रति गुणों में प्रधान, ३२ पुरुष के उपचारों में निपुण, जिस के प्रसुप्त नव अंग जागे हुए हैं, १८ देशों की भाषा में विशारद, जिसकी सुन्दर वेष भूषा श्रृंगार रस का घर बनी हुई है एवं गीत, रति और गान्धर्व नाट्य तथा नृत्य कला में प्रवीण, सुन्दर गति - गमन करने वाली कुचादिगत सौन्दर्य से सुशोभित, गीत, नृत्य आदि कलाओं से सहस्र मुद्रा कमाने वाली, जिस के विलास भवन पर ऊंची ध्वजा लहरा रही थी, जिसको राजा की ओर से पारितोषिक रूप में, छत्र तथा चामर - चंवर, बालव्यजनिका - चंत्ररी या छोटा पंखा, मिली हुई थी, और जो कर्णीरथ में गमनागमन किया करती थी, ऐसी काम-ध्वजा नाम की एक गणिका - वेश्या जोकि हज़ारों गणिकाओं पर आधिपत्य- स्वामित्व कर रही थी, वहा निवास किया करती थी । टीका - प्रथम अध्ययन की समाप्ति के अनन्तर श्री जम्बू स्वामी ने श्रार्य सुधर्मा स्वामी से बड़ी नम्रता से निवेदन किया कि भगवन् ! जिनेन्द्र भगवान् श्री महावीर स्वामी ने दु:ख विपाक ( जिस में मात्र पाप जन्य क्लेशों का वर्णन पाया जाय ) के प्रथम | मृगापुत्र नामक ] अध्ययन का जो अर्थ प्रतिपादन किया है, उस का तो मैंने आप श्री के मुख से बड़ी सावधानी के साथ श्रवण कर लिया है परन्तु भगवान् ने इसके दूसरे अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है अर्थात् दूसरे अध्ययन में किस की जीवनी का कैसा वर्णन किया है । इस से मैं सर्वथा अज्ञात हूँ, अतः आप उसका भी श्रवण करा कर मुझे अनुगृहीत करने की कृपा करें । यह मेरी आपके श्री चरणों में अभ्यर्थना है ।
तीव्ररुचि का संसूचक है, वहां आर्य प्रतिपादक की यही
यह प्रश्न जहां जम्बूस्वामी की श्रवण - विषयक सुधर्मा स्वामी के कथन की सार्थकता का भी द्योतक है । श्रोता की श्रवणेच्छा में प्रगति हो, श्रोता की इच्छा में प्रगति का होना की कसौटी है । जिस प्रकार वक्ता समयज्ञ एवं सिद्धांत के प्रतिपादन में चाहिये, उसी प्रकार श्रोता भी प्रतिभाशाली तथा विनीत होना आवश्यक और वक्ता का संयोग कभी सद्भाग्य से ही होता है ।
ही,
विशेषता है, कि वक्ता की विशेषता पूर्णतया समर्थ होना
। इस प्रकार श्रोता
इस सूत्र से भी यही सूचित होता है कि जो ज्ञान विनय-पूर्वक उपार्जित किया गया हो
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