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प्रथम अध्याय
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
लंसि-सिंह कुल में । सीहत्ताए- सिंह रूप से । पच्चायाहिति-उत्पन्न होगा। तत्थ-वहां पर। सेणंवह । सोहे – सिंह । अहम्मिए-अधर्मी। जाव-यावत् । साहसिते-साहसी । भविस्सति-होगा । सुबहु - अनेकविध । पावं-पापरूप । कम्म-कर्म । समज्जिणति २--एकत्रित करेगा, करके । सेवह सिंह । कालमासे मृत्यु-समय आ जाने पर । कालं किच्चा-काल कर के । इमीसे- इस रयणप्पभाए - रत्न-प्रभा नामक । पुढवीए-पृथिवी में-नरक में। उक्कोससागरोवमट्रिइएस-उत्कृष्ट सागरोपम स्थिति वाले नारकों में अर्थात् जिन की उत्कृष्ट स्थिति सागरोपम की है, उन नारकियों में । उववज्जिहिति- उत्पन्न होगा । ततो णं-- तदनन्तर । से – वह सिंह का जीव । अणंतरंअन्तर रहित, बिना व्यवधान के । उव्वट्टिना-निकल कर अर्थात् पहली नरक से निकल कर सीधा ही। सरीसवेसु-भुजाओं अथवा छाती के बल से चलने वाले तिर्यञ्च प्राणिों की योनियों में। उववज्जिहिति-उत्पन्न होगा। तत्थ णं-वहां पर । कालं किच्चा-काल करके । दोच्चाए पुढवीएदूसरी नरक में । उववज्जिहिति-उत्पन्न होगा, वहां उसकी। उक्कोसियाए-उत्कृष्ट । तिन्निसागरोवमहिई-तीन सागरोपम की स्थिति होगी ततो गं - वहां से । उठवहिता-निकल कर । अणंतरं-व्यवधान रहित-सीधा ही । पक्खीसु-पक्षियों में । उपवज्जिहिति-उत्पन्न होगा । तत्थ वि- वहां पर भी। कालं किच्चा-काल करके । सत्तसागरो०- सप्त सागरोपमस्थिति वाली। तच्चाए ---तीसरी । पुढवीएनरक में उत्पन्न होगा । ततो- वहां से । सीहेसु-सिंह-योनि में उत्पन्न होगा। तयाणंतरं-उसके अनन्तर । चउत्थीए - चतुर्थ नरक में उत्पन्न होगा, वहां से निकल कर । उरगो-सर्प होगा, वहां से मर करके । पंचमोए-पांचवीं नरक में उत्पन्न होगा, वहां से निकल कर । इत्थी-स्त्री-रूप में जन्म लेगा वहां से काल करके । छट्ठीए-छठे नरक में उत्पन्न होगा, वहां से निकल कर । मणुओं-पुरुष बनेगा, वहां पर काल करके । अहे सत्तमाए-सब से नीची सातवीं नरक में उत्पन्न होगा । ततो-वहां में । उध्वहिता-- निकल कर। अणंतर-अन्तर-व्यवधान रहित । से- वह । जाई इमाई- जो यह । जलयर--जलचर-जल में रहने वाले । पंचिंदिय - पञ्चेन्द्रिय-पांच इन्द्रियों वाले जीव जिन के अांख, कान, नाक, जिव्हा-रसना और स्पर्श ये पांच इन्द्रिय हैं, ऐसे। तिरिक्खजोणियाणं-तिर्यग योनिवाले । मच्छ-मत्स्य । फच्छभ - कच्छप कछुआ। गाह-ग्राह-नाका । मगर-मगर मच्छ । सुसुमारादीणं-सुसुमार आदि की। अद्धतेरसजातिकुल-कोडी जोणिपमुहसयसहस्साई -जाति - जलचरपंचेन्द्रिय की योनियां (उत्पत्तिस्थान) ही प्रमुख
-उत्पत्तिस्थान हैं जिनके ऐसी जो कुल-कोटियां (कुल - जीवसमूह, कोटि प्रकार) हैं उन की संख्या साढ़े बारह लाख है । तत्थ णं-उन में से । एगमेगंसि-एक एक । जोणीविहाणंसि-योनिविधान में-योनि भेद
१। प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम पद में लिखा है कि - स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीवों के दो भेद हैं, जैसे कि - चतुष्पद और परिसर्प । परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीवों के–भुजपरिसर्प और उर:परिसर्प ऐसे दो भेद होते हैं । भुजपरिसर्प शब्द से भुजाओं से चलने वाले नकुल, मूषकादि जीवों का ग्रहण होता है, और उर-परिसर्प शब्द छाती से चलने वाले सांप, अजगर आदि जन्तुयों का परिचायक है । परिसर्प का ही पर्यायवाची सरीसृप शब्द है जिस का प्रस्तुत प्रकरण में वर्णन चल रहा है। यहां लिखा है कि सिंह के रूप में आया हुअा मृगापुत्र का जीव अायु पूर्ण करके सरीसृपों की योनि में उत्पन्न हुअा, परन्तु प्रज्ञापनासूत्र के मतानुसार सरीसृप शब्द से सर्पादि और नकुलादि दोनों का बोध होता है, यहां प्रकृत में दोनों में किस का ग्रहण किया जाए ? यह विचारणीय है।
(१) अभिधान राजेन्द्र कोष में “-सरीसृपःगोधादिषु भुजोरुभ्यां सर्पणशीलेषु तिर्यत -" (पृष्ठ ५६०) ऐसा लिखा है, जो सरीसृप और परिसर्प को पर्यायवाची होने की ओर संकेत करता है।
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