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८२]
श्री विपाक सूत्र
[प्रथम अध्याय
टीका-अत्युग्र पापकर्मों के आचरण का क्या परिणाम होता है ? यह जानने के इच्छुकों के लिये मृगापुत्र का यह एक मात्र उदाहरण ही काफी है। गर्भावास में ही अन्दर तथा बाहिर की ओर पूय तथा रक्त का स्राव करने वाली अभ्यन्तर और बाहिर की शिरात्रों-नाड़ियों से पूय और रूधिर का बहना, शरीर में भयंकर अग्निक१भस्मक रोग का उत्पन्न होना, खाये हुए अन्नादि का उसके द्वारा शीघ्रातिशीघ्र नष्ट हो जाना अर्थात् उस का पचजाना एवं उस का पूय और रुधिर के रूप में परिणमन हो जाना और उस का भी भक्षण कर लेना ये सब इतना बीभत्स और भयावना दृश्य है कि उस का उल्लेख करते हुए लेखनी भी संकोच करती है । तब गर्भस्थ मृगापुत्र की अथवा नरक से निकल कर मृगादेवी के गर्भ में आये हुए एकादि के जीव की उपयुक्त दशा की ओर ध्यान देते हुए भातृहरि के स्वर में स्वर मिलाकर 'तस्मै नमः कर्मणे" [अर्थात् कर्मदेव को नमस्कार हो] कहना नितरां उपयुक्त प्रतीत होता है ।
गर्भस्थ मृगापुत्र के शरीर में भीतर और बाहिर की ओर प्रवाहित होने वाली नाड़ियों में से आठ पूय को प्रवाहित करती थीं और आठ से रक्त प्रवाहित होता था। इस प्रकार पूय और रक्त को प्रवाहित करने वाली १६ नाड़ियें थी। इनका अवान्तर विभाग इस प्रकार है
दो दो कानों के छिद्रों में, दो दो नेत्रों के विवरों में, दो दो नासिका के रंध्रों में और दो दो दोनों धमनियों में, अन्दर और बाहर से पूय तथा रक्त को प्रवाहित कर रही थीं । यह-“अट्ठ णालीप्रो" से लेकर “परिस्सवमाणी यो २ चेत्र चिट्ठति" तक के मूल पाठ का तात्पर्य है । वृत्तिकार ने भी यही भाव अभिव्यक्त किया है
शरीरस्याभ्यन्तर एव रुधिरादि स्रवन्ति यास्तास्तथोच्यन्ते, शरीराद्वहिः पूयादि क्षरन्ति यास्तास्तथोक्ताः । एता एव षोड़श विभज्यन्ते कथममित्याह --- वे पूयप्रवाहे द्वे च शोणितप्रवाहे । ते च क्वेत्याह-श्रोत्ररन्ध्रयोः, एवमेताश्चतस्रः, एवमन्या अपि व्याख्येयाः नवरं धमन्यः कोष्ठहड्डान्तराणि।
अब सूत्रकार मृगापुत्र के जन्म सम्बन्धी वृत्तान्त का वर्णन करते हुए इस प्रकार प्रतिपादन करते हैं -- मल-तते णं सा मियादेवी अएणया कयाती णवण्ह मासाणं बहुपडिपुराणाणं दारगं पयाया जातिअंधं जाव आगितिमित्तं । तते णं सा मियादेवी तं दारयं हुडं अन्धारूवं पासति २ ता भीया ४ अम्मधाति सद्दावेति २त्ता एवं वयासी-गच्छह णं देवा० ! तुम एवं दारगं कर्मों का प्रकोप ऐसा ही भीषण एवं हृदय कम्पा देने वाला होता है । अतः सुखाभिलाषी पाठकों को पाप कर्मों से सदा दूर ही रहना चाहिये ।
(१) भस्मक रोग वात, पित्त के प्रकोप से उत्पन्न होने वाली एक भयंकर व्याधि है। इस में खाया हुआ अन्नादि पदार्थ शीघ्रातिशीघ्र भस्म हो जाता है - नष्ट हो जाता है। शाङ्गधर संहिता [ अध्याय ७ ] में इस का लक्षण इस प्रकार दिया गया है:---
अतिप्रवृद्धः पवनान्वितोऽग्निः, क्षणाद्रसं शोषयति प्रमह्य ।।
युक्तं क्षणाद् भस्म करोति यस्मात्तरमादयं भम्मक--संज्ञकस्तु ।। अर्थात् - जिस रोग में बढ़ी हुई वायु युक्त अग्नि रसों को क्षणभर में सुखा देती है, तथा खाए हुए भोजन को शीघ्रातिशीघ्र भस्म कर देती है उसे भस्मक कहते हैं।
(२) छाया-ततः सा मृगादेवी अन्यदा कदाचित् नवसु मासेषु बहुपरिपूर्णेषु दारकं प्रजाता, जात्यन्धं
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