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श्री विपाक सूत्र
[प्रथम अध्याय
सम्मत । आसि-थी, परन्तु । जप्पभितिं च णं - जब से । मम-मेरे । कुच्छिसि-उदर में । इमे-यह गब्भे--गर्भ । गम्भत्ताए - गर्भरूप से । उववन्ने-उत्पन्न हुआ है । तप्पभितिं च णं-तब से । विजयस्स खत्तियस्स- विजय क्षत्रिय को । अहं- मैं । अणिहा - अप्रिय । जाव-यावत् । श्रमणामामन से अग्राह्य । जाया यावि होत्था हो गई हूँ । विजए खत्तिए-विजय क्षत्रिय तो। मम-मेरे । नामवा-नाम तथा । गोतं वा-गोत्र का भी। गिरिहत्तते - ग्रहण करना-स्मरण करना भी। नेच्छति-- नहीं चाहते। किमंग पुण - तो फिर । दसणं वा-दर्शन तथा । परिभोगं वा-परिभोग-भोगविलास की तो बात ही क्या है ? । तं-अतः । खलु --निश्चय ही। प्रम-- मेरे लिये यही । सेय-श्रेयस्कर है --कल्याणकारी है कि मैं । एवं गब्भं - इस गर्भ को । बहूहिं-अनेकविध । गम्भसाड़णाहि य-गर्भ शातनाओं अर्थात् गर्भ को खण्ड खण्ड कर के गिराने रूप क्रियाओं द्वारा ।पाडणाह य--पातनाओं-अखण्डरूप से गिराने रूपी क्रियाओं से । गालणाहि य- गालनात्रों-द्रवीभूत करके गिराने रूप क्रियाओं से तथा । मारणाहि य-मारणा
ओं-मारण रूप क्रियात्रों द्वारा । साडेत्तए वा ४ --शातना, पातना गालना, और मारणा के लिये । संपेहेइ विचार करती है. विचार करके।गब्भमाडणाणि य-गर्भ के गिराने वाली । बहणि-अनेक प्रकार की। खराणि-खर-खारी । कडुयाणि य--कटु, कड़वी । तूवराणि य-कषाय रस युक्त, कसैली औषधियों को। खायमाणी य---खाती हुई पीयमाणी य-पीती हुई। तं गभं-उस गर्भ को । साडित्तए वा४शातन, पातन, गालन और मारण करने की । इच्छति-इच्छा करती है, परन्तु । से गब्भे-उस गर्भ का। नो चेवणं- नहीं । सडइ ४-शातन, पातन, गालन और मारण हुा । तते णं-तदतन्तर । सा मियादेवी-वह मृगादेवी । जाहे-जब । तं गभं-उस गर्भ का । साडित्तए वा ४-शातनादि करने में नो संचाएति-समर्थ नहीं हुई । ताहे-तब । संता-श्रान्त -थकी हुई । तंता-मन से दुःखित हुई।
ता-शारीरिक और मानसिक खेद से खिन्न हुई। अकामिया-अभिलाषा रहित हुई । असणंघसा-विवश-परतन्त्र हुई । तं गभं-उस गर्भ को। दुहं दुहेणं-अत्यन्त दुःख से । परिवहति-धारण करती है अर्थात् धारण करने की इच्छा न होते हुए भी विवश होती हुई धारण कर रही है।
मूलाथे–तनन्तर किसी काल में मध्य रात्रि के समय कुटुम्ब-चिन्ता से जागती हुई उस मृगादेवी के हृदय में यह संकल्प-विचार उत्पन्न हुआ कि मैं पहले तो विजय नरेश को इष्ट-प्रिय, येय-- चिन्तनीय, विश्वास - पात्र और सम्माननीय थी परन्तु जब से मेरे उदर में यह गर्भस्थ जीव गर्भरूप से उत्पन्न हुआ है तब से विजय नरेश को मैं अनिष्ट यावत् अप्रिय लगने लग गइ हूं । इस समय विजय नरेश तो मेरे नाम तथा गोत्र का भी स्मरण करना नहीं चाहते, तो फिर दर्शन और परिभोग -भोगविलास की तो आशा हो क्या है ? अत: मेरे लिये यही उपयुक्त एवं कल्याणकारी है कि मैं इस गर्भ को गर्भपात के हेतुभूत अनेक प्रकार की शातना ( गर्भ को खण्ड २ कर के गिरा देने वाले प्रयोग ) पातना । अखंडरूप से गर्भ को गिरा देने वाले प्रयोग) गालना (गर्भ को द्रवो-भूत करक गिराने वाला प्रयोग ) और मारण! (मारने वाला प्रयोग द्वारा गिरा दू-नष्ट कर दू। वह इस प्रकार विचार करती है और विचार कर गर्भ-पात में हेतु भूत क्षारयुक्त--खारी कड़वो, और कसैली औषधियों का भक्षण तथा पान करती हुई उस गर्भ को गिरा देना चाहती है। अर्थात् शातना आदि उक्त उपायों से गर्भ को नष्ट कर देना चाहती है । परन्तु वह गर्भ उक्त उपायों से भी नाश को प्राप्त नहीं हुआ । जब वह मृगादेवी इन पूर्वोक्त उपायों से उस गर्भ को नष्ट करने में समर्थ
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