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७६]
श्रो विपाक सूत्र
[प्रथम अध्याय
रत्नप्रभा नाम के प्रथम नरकस्थान में उत्पन्न होने वाले जीवों की उत्कृष्ट स्थित एक सागरोपम की मानी गई है और जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है । दशकोड़ा - कोड़ी पल्योपम प्रमाण काल (जिसके द्वारा नारकी और देवता की आयु का माप किया जाता है ) की सागरोपम संज्ञा है।।
___ "ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता” इस वाक्य में प्रयुक्त हुअा "अणंतरं" यह पद सूचित करता है कि एकादि का जीव पहली नरक से निकल कर सीधा मृगादेवी की ही कुक्षि में आया, अर्थात् नरक से निकल कर मार्ग में उसने कहीं अन्यत्र जन्म धारण नहीं किया।
नारक जीवन की स्थिति पूरी करने के अनन्तर ही एकादि का जीव मृगादेवी के गर्भ में पुत्ररूप से अवतरित हुअा अर्थात् मृगादेवी के गर्भ में अाया, उसके गर्भ में आते ही क्या हुआ ? अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हुए प्रतिपादन करते हैं
मूल--तते णं तीसे मियाए देवीए सरीरे वेयणा पाउब्भूता, उज्जला जाव जलंता । जप्पभिति च णं मियापुत्ते दारए मियाए देवीए कृच्छिंसि गब्भत्ताए उववन्ने, तप्पभितिं च णं मियादेवी विजयस्स खत्तियस्य अणिट्ठा अकंता अप्पिया अमणुएणा अमणामा जाया यावि होत्था ।
पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । तीसे-उस । मियाए देवीए-मृगादेवी के । सरीरे-शरीर में । उज्जला-उत्कट । जाव-यावत् । जलंता-जाज्वल्यमान -अति तीव्र । वयणा-वेदना । पाउब्भूता-प्रादुर्भूत-उत्पन्न हुई । णं-वाक्यालंकारार्थ में जानना । जप्पभितिं च -जब से । मियापुत्तेमृगापुत्र नामक । दारए-बालक । मियाए देवीए-मृगादेवी की। कुच्छिंसि-कुक्षि-उदर में गब्भत्ताएगर्भरूप से । उववन्ने--उत्पन्न हुआ। तप्पभिति-तब से लेकर । च णं-च समुच्चार्थ में और णंवाक्यालंकारार्थ में है । मियादेवी-मृगादेवी । विजयस्स खत्तियस्स-विजय नामक क्षत्रिय को । अनिट्ठा-अनिष्ट । अकंता- सौन्दर्य रहित । अप्पिया-अप्रिय । अमणुराणा - अमनोज्ञ- असुन्दर । अमणामा-मन से उतरी हुई। जाया यावि होत्था-हो गई अर्थात् उसे अप्रिय लगने लगी।
मूलार्थ-तदनन्तर उस मृगादेवी के शरीर में उज्वल यावत् ज्वलन्त- उत्कट एवं ज, ज्वल्यमान वेदना उत्पन्न हुई-तीव्रतर वेदना का प्रादुर्भाव हुआ । जब से मृगापुत्र नामक बालक मृगादेवी के उदर में गर्भ रूप से उत्पन्न हुआ तब से लेकर वह मृगादेवी विजय नामक पत्रिय को अनिष्ट, अमनोहर, अप्रिय, सुन्दर, मनको न भाने वाली-मन स उतरी हुई सी लगने लगी।
टीका-पुण्यहीन पापी जीव जहां कहीं भी जाते हैं वहां अनिष्ट के सिवा और कुछ नहीं होता । तदनुसार एकादि का जीव नरक से निकलकर जब मृगादेवी के उदर में आया तो उसके सुकोमल शरीर में तीव्र वेदना उत्पन्न हो गई । इसके अतिरिक्त उसके गर्भ में आते ही सर्व गुगण-सम्पन्न, सर्वांगसम्पूर्ण परमसुन्दरी [ जो कि विजय नरेश की प्रियतमा थी ] मृगादेवी विजय नरेश को सर्वथा अप्रिय और सौन्दर्य -रहित प्रतीत होने लगो । पुण्य-शाली ओर पा.पेष्ट अात्माओं को पुण्य और पापमय विभूति का इन्हीं लक्षणों से अनुमान किया जाता है।
(१) छाया-ततस्तस्या मृगाया देव्याः शरीरे वेदना प्रादुर्भूता, उज्वला यावज्जवलंती। यत्प्रभृति च मृगापुत्रो दारको मृगाया देव्याः कक्षौ गर्भतया उपपन्नः तत्प्रभृति च मृगादेवी विजयस्य क्षत्रियस्य अनिष्टा। अकान्ता, अप्रिया, अमनोज्ञा, अमनोमा जाता चाप्यभवत् ।
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