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शोधन त्रयीः
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चाहिए।
विचारपोथी
૪૪૦
(१) विचारशोधन, (२) वृत्तिशोधन, (३) वर्तनशोधन |
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४४१
प्रतिकार कहते ही उसमें अपुरस्कार गृहीत समझना
६५.
४४२
साधु-संतों को भी हम 'भोग्य' बनाना चाहते हैं । लेकिन वै हमें हजम होने लायक नहीं होते, इसका हमारे पास कोई इलाज नहीं होता ।
४४३
पिछला 'पशु' पसन्द नहीं आता, अगला मनुष्य अभी बन नहीं है । बीचकी इस भयानक साधकावस्थाको मैं साधनाका नृसिंहावतार कहता हूं ।
४४४
मुझे कुहरा दूसरी तरफ दिखाई देता है । दूसरेको कुहरा मेरे पास नज़र आता है । वास्तव में कुहरा सभी तरफ है । मुझे दूसरेकी स्थितिमें सन्तोष दिखाई देता है । दूसरेको मेरी स्थिति में सन्तोष दिखाई देता है । वास्तव में सन्तोष सर्वत्र है । परन्तु उसकी पहचान-भर होनी चाहिए ।
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जीवन में भय रखने से मरण निर्भय होगा ।
४४६
छुटपन में गणेशजीका विसर्जन करते समय चित्तपर बड़ा प्रघात होता था । इतने प्रेमसे जिसकी स्थापना की, इतने दिन पूजा की, उसे पानी में डुबो देनेकी कल्पना सही नहीं जाती थी ।
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