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विचारपोथी
३२५ उत्तराभिमुख क्यों ? ऋषियोंका स्मरण तथा हिमालय और ध्रुवका चिन्तन। (यहां यह मान लिया है कि हम हिन्दुस्तान में हैं)।
३२६ भक्तको कर्मयोगमें रुचि होती है, क्योंकि उसमें उसकी उपासनाकी भावना होती है।
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कर्मठ उपासनाका भी 'कर्म' बनाता है। भक्त कर्मकी भी उपासना बनता है।
३२८ परकाया-प्रवेश याने दूसरेका मानस-शास्त्र जानना।
३२९ अहंकारको लगता है, अगर 'मैं' नहीं रहा तो दुनियाका काम कैसे चलेगा ? सच तो यह है कि मेरे ही क्यों, बल्कि सारी दुनियाके न रहनेपर भी दुनियाका काम चल सकता है।
३३० स्वकर्ममें उपासनाकी दृष्टि न रही तो भी स्वकर्म अभ्युदय साधेगा; उपासनाकी दृष्टि कायम रही तो प्रत्यक्ष मोक्ष प्राप्त करा देगा।
३३१ आत्मा एक। माया शून्य । एक और शून्यके संयोगसे असंख्य संसार । यही लिंगोपसना है।
"मेरी स्थितिमें तुम क्या करोगे ?"
"तू करता है वही ; क्योंकि तेरी 'स्थिति' में तेरो 'बुद्धि' आ ही जाती है।"
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