SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 578
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२२) स्वभाध्याय। मित्रनाशं च यः पश्येदनिमित्तं धनं लभेत् ॥ १२० ॥ स्वप्नमध्ये देवताभिर्दत्तं पीयूषमास्वदेत् ॥ यःस स्यात्पृथिवीपालो नृपाणां विदुषां च वा ॥ १२१ ॥ सुगन्धपुष्पप्रालम्ब वीक्षते लभते च यः ॥ कण्ठमध्ये क्षिपति च स नृपालो भवेद्धवम् ।।१२२॥ आसमुद्रक्षितीशो यःस्वप्नमध्ये भवेन्नरः॥ क्षीरानभुरभवेद्वापि सलभेत्सुखमुत्तमम् ॥१२३॥ गानवेदगजानां च सिंहसैन्धवयोरपि ॥ ध्वनि यः शृणुयान्मर्त्यः प्राप्नो ति स धनं बहु ॥ १२४ । मेरोरधित्यकायां वा कल्पपादपशेखरे ॥ अधिरुह्य प्रपश्येद्यो नीलं तृणमयं धनी ॥ १२६॥ गगने तारकाकामधेनुपक्तिं प्रपश्यति ॥ शुभ्राणि चाभ्रखण्डानि लभते सधनं बहु ॥ १२६॥ पुन्नागचंपकतिलनागके सरमालतीः॥शिरीषं च प्रपश्येद्यः स्वप्ने तस्य शुभं भवेत् ॥ १२७॥ कदली दाडिमं चाथ नारिंगं मातुलुंगकम् ॥ यदि पश्येद्भक्षयेद्वा शुभं स लभते ध्रुवम् ॥ १२८ ॥ कदलीप्रभूतीनां च प्रसूनैः संयुता द्रुमाः ॥ यदि दृष्टिपथं याता नाशुभं स्यात्कदाचन ।। १२९॥ द्राक्षाराजादनीपूगनालिकेरफलानि घको, समुद्रको मित्रके नाशको जो देखे वह पुरुष विना कारण धनको प्राप्तहोताहे ॥१२०॥ स्वप्नके वीचमें देवताओं करके दिये हुये अमृतका जो स्वादले वह राजा होताहै वा पंडितोंका अधिपति होताहै ॥ १२१ ॥ जो पुरुष सुगन्ध पुष्पोंकी मालाको देखताहै, या प्राप्त होताहै वा जिसके कण्ठके बीचमें माला गिरे वह निःसंदेह राजा होताहै ॥ १२२ ।। जो पुरुष स्वप्नमें समुद्रपर्यन्त पृथिवीका राजा हो अथवा दूध और अन्न भोगनेवाला हो वह उत्तम सुखको प्राप्त होताहै ॥ १२३ ॥ स्वप्नमें गाना वेद हाथी सिंह घोड़ा इनकी ध्वनिको जो सुने वह बहुत धनको पाता है ॥ १२४ ॥ जो मनुष्य पर्वतकी ऊपरकी भूमिपर अथवा कल्पवृक्षके शिखरपर चढ़कर नीले तृणवाली भूमिको देखे वह धनी होताहै ॥ १२५ ॥ जो आकाशमें तारोंको कामधेनुओं (गौ) कोदेखताहै अथवा सफेद मेघोंके खण्डोंको देखताहै वह बहुत धनको पाताहै ॥१२६॥ जो पुरुष नागकेशर, चमेली, तिल, मालती, शिरस इनको स्वप्नमें देख उसका शुभहो । १२७ ॥ केला दाडिमी विजौरा नींबू यदि देखे वा खाय वह कल्याणको निःसंदेह पाताहे ॥१२८॥ केलेके वृक्षादिकोंके पुष्पोंसहित वृक्ष यदि दीखें तो उसका कभी अशुभ न हो ॥१२९॥ अखरोट, खिरनी२ For Private And Personal Use Only
SR No.020879
Book TitleVasantraj Shakunam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantraj Bhatt, Bhanuchandravijay Gani
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1828
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy