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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८) स्वमाध्याय । स्यात्तदा पुनरप्युक्तप्रकारेणैवैकविंशतिदिनपर्यन्तं साधयेत् ॥ कार्य विचिन्त्य निपुणो रात्रौ जप्त्वैकविंशतिम् ॥ शयीत स्वप्नमध्ये तु स पश्येदशुभं शुभम् ॥ ३५ ॥ अथापरः स्वप्न प्रदो विद्यान्मन्त्रः॥ (ॐ ह्रीं मानसे स्वप्नं सुविचार्य विद्ये वद वद स्वाहा ॥ ११॥) शुचिर्भूत्वा हविष्यानं भुक्त्वा जवायुतं मनुम् ॥ संध्यायां भारतीपूजां कृत्वा स्वापो विधीयताम् ॥ ३६। महाविद्या समागत्य स्वप्ने ब्रूयाच्छुभाशुभम् ॥३७॥ अथापरं मन्त्रवरं ब्रह्मवैवर्तभाषितम् ॥ब्रवीमि सद्यः फलदमनुभावकरं परम् ॥३८ । (ॐ ह्रीं श्रीं की पूर्वदुर्गतिनाशिन्यै महामायायै स्वाहा ॥ १२॥) कल्प वृक्षो हि भूतानां मन्त्रः सप्तदशाक्षरः ॥शुचिश्च दशधा जवा दुष्टस्वप्नं न पश्यति ॥ ३९ ॥ शतलक्षजपेनैव मन्त्रसिद्धिर्भवेन्नृणाम् ॥ सिद्धमन्त्रश्च लभते सर्वसिद्धिं च वाञ्छितम् ।।४०॥ अथापरः स्वप्नप्रदो मृत्युञ्जयमन्त्रः॥ (ॐ मृत्युञ्जयाय स्वाहा ॥ १३॥) इमं मन्वं दशलक्षं जपित्वा मन्त्रसिद्धिः ॥ दृष्ट्वा च मरणं स्वप्ने शतायुश्च भवेन्नरः॥ विच्छेद होय तो फिर उक्तप्रकारसे २१ दिनतक साधन करै । बुद्धिमान मनुष्य रात्रिमें कार्यको विचारकर २१ वार इस मंत्रको जप कर शयन करै तो स्वप्नके बीचमें शुभाशुभ को देखताहै ॥ ३५ ॥ अवश्य स्वप्नदेनेवाला दूसरा विद्या मंत्र कहतेहैं । (ॐ हीं मानसेति० ११) यह मूलका मंत्रहै पवित्र हो हविष्यअन्नको खाताहुआ १०००० मंत्र जप करे और संध्यामें सरस्वतीको पूजा करके सोरहै ॥ ३६ ॥ तो रात्रिमें महाविद्या आकर स्वप्नमें शुभाशुभ कहती है॥३७॥ अब दूसरा मंत्र ब्रह्मवैवर्त पुराणका कहाहुआ शीघ्र फलदेनेवाला अनुभवसिद्धकहताई ॥३८ ॥ ॐ ह्रीं श्रीक्लीपूर्वदुतिनाशिन्यमहामायायै स्वाहा । १२ ) प्राणियों को कल्पवृक्षकी समान यह सत्रह अक्षरवाला मंत्रहै इसको पवित्र होकर दशवार जपनेसे दुःस्वप्न दिखाई नहीं देता ॥ ३९ ॥ एक करोड़ जपसे मनुष्यों को मंत्रसिद्धि होजातीहै मंत्रसिद्ध होनेसे सब मनवांछित प्राप्त होतेहैं ॥ ४० ॥ अब दूसरा स्वप्नपद मृत्युंजय मंत्र कहतेहै (ॐ मृत्युंजयाय खाहा १३) इस मंत्रके दश लाख जपनेसे मंत्रसिद्धि होतीहै स्वप्नमें अपनी मृत्यु देखकर मनुष्य For Private And Personal Use Only
SR No.020879
Book TitleVasantraj Shakunam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantraj Bhatt, Bhanuchandravijay Gani
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1828
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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