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पिंगलारुते संकीर्णप्रकरणम् । अधिष्ठितः कीकसकाष्ठशूलान्यंगारभस्मोपलवामलूरान् ॥ शांतस्वरो वांछितकार्यनाशं दीप्तारवो वक्तिं मृति शकुंतः॥ ॥१३३॥ स्वस्थाननैमित्तिकपादपानां मध्याच ययेकमपि त्रयाणाम् ॥ प्रदक्षिणेन प्रविवेष्टयेत्तत्पिगो दिशत्याश शुभानि पुंसः॥ १३४॥ वामे दृष्टः पिंगलः स्यात्स्वपक्षः पृष्टे कार्ये स्यात्फलं प्रष्टुरेवादृष्टः पक्षी दक्षिणेनान्यपक्षः पृष्टं सोथ वक्ति चान्यार्थमेव ॥ १३५ ॥ मध्ये घनो महती च शा
खा शुभाय तस्यां शुभशब्दकारी ॥ प्रांते चलाधोवदनातिलघ्वी स्याजातु तस्यां शुभदो न पिंगः ॥ १३६॥
॥ टीका ॥ यच्छति ॥ १३२ ।। अधिष्ठित इति ॥ कीकसकाष्ठशूलान्यंगारभस्मोपलवामलूरान तत्र वामलूरो वल्मीकं व्यमौर इति प्रसिद्धम् अधिष्ठितः शकुतः शांतस्वरः वांछित कार्यनाशं करोति दीप्तारवः पुनर्पति वक्ति॥१३३॥ स्वस्थानेति॥स्वस्थाननैमित्तिकपादपानामिति स्वशब्देन शाकुनिका स्थानं पक्षिनिवासढुम नैमित्तिक अधिवासि तद्रुमः एतेषां त्रयाणां मध्यादेकमपि प्रदक्षिणेन प्रविवेष्टयेत् पिंगः पुंसामाशु शुभानि दिशति ॥ १३४ ॥ वाम इति ॥ वामे दृष्टः पिंगलः स्वपक्षः स्यात् पृष्ट कार्य प्रष्टरेव फलं स्यात् । दक्षिणेन दृष्टः पक्षी अन्यपक्षः स्यात् स पृष्टमर्थमन्याथमेव वक्ति ॥ १३५ ॥.मध्ये इति । घना निविडा ऊर्धा उच्चस्तरा या महती शा
॥भाषा ॥ अधिष्ठित इति ॥ जो पिंगल हाड, काष्ठकी शूली, अंगार, भस्म, पाषाण, वल्मीकि, व्यमौर इनमें स्थित होय. और शांतस्वर जाको होय तो वांछितकार्यको नाश करै. जो दीप्तस्वर होय तो मृत्यु करें ॥१३॥ स्वस्थानति ॥ शकुनीको स्थान और पक्षीनको निवास जामें वो वृक्ष और और पूजनको वृक्ष इन तीनोंनमेंसे एकभी प्रदक्षिण होयकरके वेष्टन करले तो पिंगल पुरुषकू शीघ्रही शुभकरै ॥ १३४ ॥ वाम इति ॥ जो पिंगल वामभागमें दीखै तो अपनो पक्ष कहै, और पूछत्रेवारेको कार्य होय तो पूछबेवार फल होय, और दक्षिणभागमें दीखै तो अन्यको पक्ष जाननो. और पूछो हुयो कार्य होय तोभी अन्यको कहेहै ॥ १३५ ॥ मध्ये इति ॥ मध्यमें पिंगलको घूसूभा होय और महान् ऊंची शाखा होय तामें शुभशब्द करतो होय तो पिंगल शुभदेवे और वृक्षके अंतमें अंचल नाचेक् झुकी होय अति छो.
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