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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पर्थमान ॥ ५६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kallassagarsuri Gyanmandir तीर्थयात्रिकजनांहिपांसवोऽपांसुलांगिकलकंठकंदले ॥ मुक्तिमुक्तवरमाल मालिका - माल्यराजिरिव रेजिरेऽभितः ||३|| यादिनाथचरणांबुजार्चितं । चर्चितं वरसुरेश्वरव्रजैः ॥ भारते निरुपमं जिनेश्वरैरत्र वै निगदितं गदापदं ॥ ३५ ॥ तीर्थ शत्रुंजयाहान- माह्वानमिव संपदां ॥ अंतरंगोप्रशत्रूणां । सर्वदा जयकारकं ॥ ३६ ॥ युग्मं ॥ त्रिलोकमध्येऽपि न तत्समं परं । तीर्थ जत्रांनो निधिपोतसन्निनं ॥ मुक्ताधयः सिद्धगिरा विदामिता । जाता जनाः सिद्धिवधूवृता मुदा ॥ ३७ ॥ तीर्थयात्रा करनारा माणसना चरणनी रज निष्पापी प्राणिओनाज मनोहर कंठमां चोटे छे। अने ते जाणे चोतरफथी सुक्तिरूपी स्त्रीए पहेरावेली वरमालानी श्रेणिना गुंथेलां पुष्पोनी पंक्ति होय नही ? तेम शोभे छे. ||३४|| आ भरतक्षेत्रमां श्रीऋषभदेवप्रभुना चरणकमलोथी पूजायेलं, तथा उत्तम इंद्रोना समूहोथी चर्चित थयेलं, अने रोगोने दूर करनाएं, तथा संपत्तिना आमंत्रणसरखं शत्रुंजय नामनुं तीर्थ जिनेश्वरोए अनुपम कहेलुं छे. तथा ते तीर्थ हमेशां ( कषायोरूपी ) भयंकर अंतरंग शओनो जय करनारुं छे. ।। ३५ ।। ३६ ।। आ संसाररूपी समुद्र (तरवामां ) वहाणसरखं तेना जेतुं बीजुं तीर्थ त्रणे लोकमां पण नथी. आ सिद्धगिरिपर अनंता मनुष्यो व्याधिरहित थइ हर्षथी मुक्तिरूपी स्त्रीने वरेला छे. ॥ ३७ ॥ For Private And Personal Use Only चरित्रम्. ॥ ५६ ॥
SR No.020877
Book TitleVardhaman Padmasinh Shreshthi Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarsagarsuri
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1924
Total Pages159
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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