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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिन्दी गीति - काव्य गाथासत्तसई का प्रभाव संस्कृत के आचार्य गोवर्धन और अमरुक पर दिखाई देता है, तो हिन्दी के कवि विहारी की विहारी सतसई, दयाराम की दयाराम सतसई जैसे काव्यों में भी उसकी परम्परा समाहित है । इसी तरह वज्जालग्गं ने भामह, भर्तृहरि, पंडितराज जगन्नाथ आदि संस्कृत कवियों को और तुलसीदास, रहीम आदि हिन्दी कवियों को प्रभावित किया है । इस काव्य में मुनि जयवल्लभ ने लोकजीवन का बड़ा मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है। उदाहरण के रूप में निम्न गाथा देखिए, जिसमें लौकी के फूल का कितना सुन्दर चित्रण हुआ है मा इंदिंदिर तुंगसु पंकयदलणिलय मालईविरहे । तुंकिणिकुसुमाइँ न संपडंति दिव्वे पराहुत्ते ।। - भ्रमरवज्जाः गाथा सं. 245 इसी सन्दर्भ में प्राकृत के उवसग्गहर स्तोत्र, अजियसंतिथुय आदि स्तोत्र - काव्य और वैराग्यशतक, वैराग्य- रसायन - प्रकरण आदि नीति- परक गीति-काव्यों को भी उल्लिखित किया जा सकता है । प्राकृत- गीति-काव्य या मुक्तक काव्य की पृष्ठभूमि में पारलौकिकता और मुक्ति - प्राप्ति का दृष्टिकोण मुख्य रहा है । इस दृष्टि से सूत्रकृतांग और उत्तराध्ययन का विशेष स्थान है। मुक्तक काव्य के रचनाकारों में आचार्य कुन्दकुन्द, स्वामी कार्तिकेय, शिवार्य, नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती, योगीन्दु, हेमचन्द्र, मुनि रामसिंह, देवसेन आदि सन्तों के नाम उल्लेखनीय हैं। गाथासप्तशती, सेतुबन्ध, कर्पूरमंजरी, वज्जालग्गं आदि ग्रन्थ भी मुक्तक काव्य की परम्परा में आते हैं। इसी परम्परा से परमात्मप्रकाश, पाहुड-दोहा, सावय- धम्म- दोहा जैसे मुक्तक - काव्य भी सम्बद्ध हैं। इस परम्परा ने रीति- युगीन हिन्दी - मुक्तक - काव्य-परम्परा पर भी विशद प्रभाव डाला है। इस युग में श्रृंगार और प्रकृति को काव्य का मुख्य विषय बनाया गया। विशेषता यह रही कि रीतिकालीन कवियों ने नायिकाओं के शृंगार और प्रसाधन में जो अतिशयोक्ति - पूर्ण व्यंजना का प्रदर्शन किया, वह प्राकृत काव्य में नहीं दिखता। प्राकृत मुक्तक काव्य में नायिकाएँ नागरिक एवं ग्राम्य इन दोनों क्षेत्रों से आती थीं। इनके प्रेम-प्रसंगों में तत्कालीन रीति-नीति, आचार-विचार एवं युग- सन्दर्भों का प्रतिफलन होता था । यहाँ मात्र शब्दाडम्बर और अलंकार-प्रियता ही नहीं थी, बल्कि तारल्य और उक्ति - वैचित्र्य भी दिखाई देता था । यह सब रीतिकालीन - हिन्दी - मुक्तककाव्य में नहीं मिलता । सतसई के व्यंजना- गर्भित-काव्य - जैसा कोई भी रीतिकालीन हिन्दी काव्य देखने में नहीं आया। यही कारण है कि प्राकृत काव्यों को अलंकार हिन्दी जैन साहित्य :: 847 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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