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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरिभद्रसूरि का नेमिनाहचरिउ, हरिदेव का मयणपराजयचरिउ ऐसी ही आदिकालीन रचनाएँ हैं। सन्धि भी आकार-प्रकार में प्रबन्धकाव्य में लघु रूप ही हैं। रत्नप्रभकृत अन्तरंगरास (सं. 1237), जिनप्रभसूरिकृत मयणरेहा-सन्धि, अनाथी सन्धि, जीवानुशास्ति सन्धि, जयदेव गणि की भावना-सन्धि इस विधा की उल्लेखनीय रचनाएँ हैं। इसी तरह मातृका भी एक प्रकार का काव्य-रूप है, जो बारह खड़ी पर आधारित है। छद्म की दूहामातृका ऐसी ही रचना है। उन्हीं की एक-और रचना है, जो सालीभद्रकक्क के नाम से विश्रुत है। यह कक्क शैली मातृका-जैसी ही है। इसमें भी 'अ' से चलकर 'क्ष' पर रचना समाप्त होती है। रेलुआ नाम की रचनाएँ भी ऐसी ही हैं। चारित्रगणि की जिनचन्द्रसूरि रेलुआ, जयधर्म की जिनकुशलसूरि रेलुआ इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय हैं। 14वीं शती की रेलुआ संज्ञक कुछ अन्य रचनाएँ भी हैं-जिनकुशल सूरि रेलुआ, सालिभद्र रेलुआ, गुरावली रेलुआ आदि। स्तवन, प्रकरण, गीत, स्तोत्र, छप्पय आदि काव्य विधाएँ भी यहाँ दृष्टव्य हैं। ___ अध्यात्मवादी कवियों में दसवीं शताब्दी के देवसेन और जोइन्दु तथा रामसिंह के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। देवसेन का सावय-धम्म-दोहा श्रावकों के लिए नीतिपरक उपदेश प्रस्तुत करता है। जोइन्दु के परमात्मप्रकाश और योगसार में सरल भाषा में संसारी आत्मा को परमात्मपद प्राप्ति का मार्ग बताया गया है। रामसिंह ने पाहुड़ दोहा में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्र के व्यावहारिक स्वरूप को प्रतिपादित किया है। इन तीनों आचार्यों के ग्रन्थों की भाषा हिन्दी के आदिकाल की ओर झुकती हुई दिखायी देती है। हेमचन्द्र (1088-1172 ई.) तक आते-आते यह प्रवृत्ति और-अधिक परिलक्षित होने लगती है भल्ला हुआ जो मारिआ, बहिणि म्हारा कंतु। . लज्जेज्जन्तु वयंसियहु, जइ भग्ग धरु एंतु।। हिन्दी के आदिकाल को अधिकांश रूप में जैन-कवियों ने समृद्ध किया है। इनमें गजराती और राजस्थानी कवियों का विशेष योगदान रहा है। आदिकाल के प्रथम हिन्दी कवि के रूप में भरतेश्वर बाहुबली के रचयिता (सं 1241) शालिभद्र सूरि को स्वीकार किया जाने लगा है। यह रचना पश्चिमी राजस्थानी की है। जिसमें प्राचीन हिन्दी का रूप उद्घाटित हुआ है। इसमें 203 छन्द हैं। कथा का विभाजन वसतु, ठवणि, धउल, त्रोटक में किया गया है। नाटकीय संवाद सरस, सरल और प्रभावक है। भाषा की सरलता उदाहरणीय है चन्द्र-चूड विज्जाहर राउ, तिणि वातई मनि विहीय विसाउ। हा कुल मण्डण हा कुलवीर, हा समरंगणि साहस धीर । ठवणि13।। हिन्दी जैन साहित्य :: 845 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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