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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नीचे का भाग मोटा और ऊपरी भाग पतला होता है। बाहर की अपेक्षा भीतर अलंकरण और प्रकाश की व्यवस्था कम रहती है । (5) ग्वालियर - मथुरा शैली - ग्वालियर दुर्ग के भीतर अनेक मन्दिर हैं । उनमें सासबहु और तेली का मन्दिर विशेष उल्लेख नहीं है । उसमें कोई वर्गाकार योजना नहीं है। बाहरी आकार आयताकार है । (6) नागर - द्रविड़ मिश्रित शैली - नागर शैली का विस्तार दक्षिण में भी हुआ है। उसका एक रूप देखा जा सकता है कृष्ण-तुंग मुद्रा घाटी में, जहाँ द्रविड़ शैली के साथ ऐहोल के मन्दिर, पट्टादकल और आलमपुर की स्थापत्यकला नागर शैली में सम्पन्न हुई है। यहाँ की मिश्रित शैली को चालुक्य शैली भी कहा जाता है । (ब) द्रविड़ शैली - द्रविड़ शैली स्थापत्य शैली के अनेक भाग किये जा सकते हैं- (1) पल्लवकालीन (600-900 ई.), चोलकालीन (900-150 ई.), पाण्डयकालीन (1150-1350 ई.), विजयनगर पद्धति ( 1340-1560 ई.) और मथुरा की नायक कालीन पद्धति (1600-1700 ई.) । पल्लवकाल में चट्टानों को खोदकर इमारतें बनाई गई हैं। उन्हें रथ कहा जाता है । मण्डपों के स्तम्भ अलंकृत होते हैं । उनमें सिंहों की आकृतियाँ बनी हुई हैं। पल्लव मन्दिरों में विमान और गोपुरम् छोटे आकार के थे, द्वारपाल मनुष्य के आकार के थे और मन्दिर समतल भूमि पर अवस्थित थे । चोल शैली में विमान और गोपुरम् वृहदाकार में थे । द्वारपालों की आकृतियाँ भयावह थीं और मन्दिर चबूतरे पर बने हुए थे । वेसरमा चालुक्य शैली को आगे चलकर होयसल शैली कहा गया। इसका प्रचार दक्षिण भारत के पश्चिमी प्रदेशों में अधिक हुआ और विकास 10वीं से 13वीं शती तक हुआ। मैसूर और श्रवण बेलगोला में चोल शैली का ही उपयोग हुआ है । इस शैली में मुख्य कक्ष परकोटे से घिरा रहता है। पुरकोटे में कोठरयाँ बनी हुई हैं, जिनमें स्तम्भ सहित मन्दिर बने हैं। होयसल शैली में गर्भगृह एक नहीं, अनेक रहते हैं । मन्दिर का चबूतरा भी आयताकार न होकर पर्याप्त लम्बा चौड़ा है और चारों ओर की सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। इसके शिखर और स्तम्भ भी विशषता लिये हुए हैं। स्थापत्य कला में चैत्य और स्तूप के बाद मन्दिरों का निर्माण हुआ, जिससे मूर्ति और मन्दिर - शिल्प का विकास हुआ। इनमें विविध शैलियों का प्रयोग करते हुए भी उसमें शृंगारिकता और अश्लीलता का स्पर्श भी नहीं हो पाया। वीतरागता की पृष्ठभूमि में निर्जन स्थानों और पर्वतों का उपयोग हुआ। बाद में नगरों के बीच में उपासनाकेन्द्र बनने लगे । मन्दिरों के निर्माण में अधिष्ठान, सोपान, मण्डपवर, शिखर, वेदिका, गर्भगृह, वास्तुमण्डप आदि का उपयोग किया जाता था । ये मन्दिर नागर, वेसर और द्रविड़ शैली में बनते थे । नागर शैली में प्रादेशिक शैलियों का मिश्रण अधिक हुआ, जिनमें गर्भगृह - चतुष्कोणी रहता था । शिखर शुकनासा या गोलाकार का था । वेसर शैली " श्रमण जैन संस्कृति और पुरातत्त्व :: 77 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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