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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वृत्ति सहित), 'शास्त्रवार्तासमुच्चय', 'षड्दर्शनसमुच्चय', 'अनेकान्तवादप्रवेश' व 'सर्वज्ञसिद्धि'। इन सभी ग्रन्थों में आचार्य हरिभद्र ने प्रत्येक विवेचनीय विषय पर तार्किक शैली से चर्चा की है और वैदुष्यपूर्ण युक्ति, प्रमाण आदि के आधार पर अन्य मतों का खण्डन किया है एवं स्वमत की स्थापना की है; किन्तु सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि वे शास्त्रीय चर्चा में मध्यस्थ व पक्षपातहीन दृष्टिकोण अपनाने के प्रबल पक्षधर थे। उन्होंने स्पष्ट घोषणा की कि मेरा न तो भगवान महावीर के प्रति पक्षपात है और न ही कपिल आदि दार्शनिकों के प्रति विद्वेष-भाव है। जो भी युक्तिसंगत हो, उसे स्वीकार करने का मेरा आग्रह है। उनके ग्रन्थों में उनका मौलिक व स्वतन्त्र चिन्तन परिलक्षित होता है। यद्यपि आर्ष (आगम) परम्परा के प्रति उनकी अगाढ़ श्रद्धा है, फिर भी वे तार्किक परम्परा की उपेक्षा नहीं करते और वैचारिक उदारता का भी पूर्ण प्रदर्शन करते हैं। ___ आचार्य हरिभद्र जहाँ श्वेताम्बर परम्परा के प्रति आस्था रखते थे, वहाँ आचार्य विद्यानन्दि दिगम्बर परम्परा के प्रबल समर्थक व पोषक थे। आचार्य विद्यानन्दि की जो प्रमुख संस्कृत रचनाएँ जैन न्याय-साहित्य की अमूल्य निधि हैं- 'आप्तपरीक्षा', 'प्रमाणपरीक्षा', 'पत्रपरीक्षा' और 'सत्यशासनपरीक्षा'। उनकी विद्यानन्दिमहोदय नामक कृति भी है, किन्तु वह अनुपलब्ध है। उक्त मौलिक ग्रन्थों के अतिरिक्त दो टीका ग्रन्थ भी हैं, जिनमें अष्टसहस्री (जो आप्तमीमांसा व उस पर अकलंककृत अष्टशती टीका पर व्याख्या है) तथा तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (तत्त्वार्थसूत्र पर टीका) उल्लेखनीय हैं। उपर्युक्त ग्रन्थ में आप्त-परीक्षा की रचना सर्वार्थसिद्धि-ग्रन्थ (तत्त्वार्थसूत्र पर पूज्यपादकृत टीका) के प्रथम मंगलाचरण 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' पर भाष्य रूप में की गयी है। समस्त ग्रन्थों में आचार्य विद्यानन्दि ने जैन न्याय-परम्परा को और भी अधिक परिमार्जित व परिष्कृत या सशक्त बनाने का प्रयास किया है। सत्यशासनपरीक्षा ग्रन्थ में सभी दार्शनिक मान्यताओं को पूर्वपक्ष रूप में उपस्थापित कर उत्तरपक्ष रूप में उनमें दोषों की उद्भावना करते हुए उनका निराकरण किया गया है और जैन मत की निर्दोषता प्रतिपादित की गयी है। आचार्य विद्यानन्दि के बाद आचार्य अनन्तकीर्ति (ई. 10वीं) ने 'बहत्सर्वज्ञसिद्धि' तथा लघुसर्वज्ञसिद्धि'-ये दो ग्रन्थ रचे, जिनमें सर्वज्ञता की सिद्धि की गयी है। न्याय, वैशेषिक आदि दर्शनों के सूत्र-ग्रन्थों की तरह जैन-न्याय का परिचयात्मक व सुव्यवस्थित ज्ञान कराने की दृष्टि से संस्कृत में दो सूत्र ग्रन्थ भी रचे गयेमाणिक्यनन्दी आचार्य (ई. 11) द्वारा विरचित 'परीक्षामुख' तथा आचार्य वादिदेवसूरि (ई. 12वीं शती) द्वारा रचित 'प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार'। छह परिच्छेदों व 212 सूत्रों वाले परीक्षामुख ग्रन्थ में प्रमुखतः प्रमाण, प्रमाणाभास का विवेचन है और उसके अन्तर्गत 796 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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