SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 797
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वाभाविक था। कुछ समय तक भाषा-विशेष के प्रति अधिक पक्षपात या अनुराग की स्थिति दोनों परम्पराओं में रही; किन्तु क्रमशः उनका दृष्टिकोण उदार होता गया। यद्यपि ऐतिहासिक दृष्टि से देखें, तो दोनों भाषाओं का अपना-अपना उत्कर्ष-काल भी रहा है। किन्तु अन्त में एक समन्वय-युग भी आता है, जिसमें संस्कृत व प्राकृत दोनों भाषाएँ समान रूप से आदरणीय हो गयीं और दोनों को ही साहित्यकारों ने उदार दृष्टिकोण से अपनाया। दोनों ही भाषाएँ संकीर्णता व साम्प्रदायिकता के घेरे से निकलकर साहित्यरचना की माध्यम बनीं। समन्वय-युग को प्रतिबिम्बित करनेवाले कुछ तथ्य इस प्रकार हैं- पाणिनि-शिक्षा (पद्य-3) में संस्कृत व प्राकृत- दोनों को ही भगवान् शंकरउपदिष्ट कहा गया। भरत के नाट्यशास्त्र (18/28) में प्राकृत व संस्कृत दोनों भाषाओं को चारों वर्णों द्वारा सेवित बताया गया। नाट्य परम्परा में पात्रानुसार दोनों भाषाओं का प्रयोग मान्य किया गया। आचार्य राजशेखर ने काव्यपुरुष के निरूपण में संस्कृत को उसका मुख बताकर प्राकृत को बाहु बताया। महाकवि कालिदास के 'कुमारसम्भव' महाकाव्य (7/40) में सरस्वती को शिव-पार्वती युगल की संस्कृत व प्राकृत दोनों भाषाओं में क्रमशः स्तुति करते हुए देखते हैं। 'कामसूत्र' (4/37) में यह परामर्श दिया गया है कि गोष्ठियों में बहुमान पाने में वही सफल हो सकता है, जो संस्कृत व देशभाषा (प्राकृत) दोनों का एकान्तिक प्रयोग नहीं करता, अपितु दोनों को यथोचित रूप से व्यवहार में लाता है। जैन धार्मिक परम्परा में संस्कृत-प्रवेश की पृष्ठभूमि उदार दृष्टिकोण की उक्त सार्वभौमिक बयार ने जैन परम्परा को भी प्राकृत की जगह संस्कृत को आदर देने हेतु प्रेरित किया। आचार्य उमास्वामी (या उमास्वाति) ने (ई. दूसरी शती में) 'तत्त्वार्थसूत्र' नामक सर्वप्रथम सूत्र-ग्रन्थ संस्कृत में लिखा। श्वेताम्बर आगमों की अन्तिम वाचना (ई. 5वीं शती लगभग) आचार्य देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के नेतृत्व में हुई और उन्हें अन्तिम रूप से व्यवस्थित व लिपिबद्ध किया गया। इन आगमों पर व्याख्या-ग्रन्थ प्रारम्भ में प्राकृत में ही रचे गये, किन्तु कालान्तर में संस्कृत को भी स्थान मिला और स्वतन्त्र व्याख्याएँ भी संस्कृत में लिखी जाने लगी, जिसका प्रथम सूत्रपात आचार्य हरिभद्र (ई. 8वीं शती) ने किया। प्रारम्भ में रूढ़िवादियों की ओर से संस्कृत का विरोध भी किया गया, किन्तु समन्वय का दृष्टिकोण अन्ततः विजयी हुआ। इस सम्बन्ध में 'प्रभावकचरित' में वर्णित आचार्य सिद्धसेन के योगदान को यहाँ स्मरण करना प्रासंगिक होगा। आचार्य सिद्धसेन (ई. 5वीं) बचपन से ही संस्कृत के अभ्यासी थे। अपने साधु-जीवन में उन्होंने प्राकृत सिद्धान्तों को संस्कृत भाषा में अनूदित करने का विचार संघ के समक्ष प्रकट किया। रूढ़िवादियों की ओर से इतना 788 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy