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अपभ्रंश-साहित्य का वैशिष्ट्य __अपभ्रंश-साहित्य का वैशिष्ट्य कई दृष्टियों से विशेष महत्त्वपूर्ण इसलिए भी है, क्योंकि चतुर्विध-अनुयोगों की समृद्ध-सम्पदा को समेटे हुए भी उसके प्रायः प्रत्येक ग्रन्थ के आदि एवं अन्त की प्रशस्तियों में समकालीन गंग, राष्ट्रकूट, चालुक्य, तोमरवंशी एवं मुगलवंशी राजाओं, नगरसेठों, अमात्यों, भट्टारकों, पूर्ववर्ती एवं समकालीन ग्रन्थकारों एवं उनके ग्रन्थों के उल्लेखों के अतिरिक्त भी अन्य समकालीन राजनीतिक, सामाजिक तथा लोक-जीवन सम्बन्धी तथ्यों का उद्घाटन किया गया है। भले ही इस साहित्य के रचनाकार जैन रहे हों, किन्तु उन्होंने जहाँ समकालीन भारतीय इतिहास के विकास के लिए प्रामाणिक विविध तथ्य प्रस्तुत किये, वहीं आधुनिक भारतीय भाषाओं के विकास के लिए बीजारोपण भी किया। उनकी वर्गीकृत विधाओं का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है, जिससे कि उसकी प्रचुरता एवं विविधता की जानकारी मिल सके। वह इस प्रकार है:
1. मुक्तक-काव्य-(प्रमुख ग्रन्थ 11 से भी अधिक) 2. कथा-काव्य-(प्रमुख ग्रन्थ 9 से भी अधिक) 3. चरित-काव्य-(प्रमुख ग्रन्थ 30 से भी अधिक) 4. रूपक-काव्य-(प्रमुख ग्रन्थ 8 से भी अधिक) 5. खण्ड-काव्य-(प्रमुख ग्रन्थ 25 से भी अधिक) 6. अपभ्रंश-महाकाव्य-(प्रमुख ग्रन्थ 19 से भी अधिक) 7. रासा-काव्य-(प्रमुख ग्रन्थ 24 से भी अधिक) 8. फागु-काव्य-(प्रमुख ग्रन्थ 12 से भी अधिक) 9. चर्चरी एवं स्तुति-स्तोत्र-साहित्य-(प्रमुख ग्रन्थ 20 से भी अधिक) 10. सन्धि-काव्य-(प्रमुख ग्रन्थ 23 से भी अधिक) 11. गद्यांश समन्वित काव्य-साहित्य-(प्रमुख ग्रन्थ 10 से भी अधिक) 12. जयमाला काव्य-साहित्य (25 से भी अधिक) एवं 13. कुलक-काव्य-साहित्य (14 से भी अधिक)
अपभ्रंश के उक्त नाम तो प्रकाशित कुछ प्रमुख ग्रन्थों की काव्य-शैलियों के उल्लेख मात्र हैं। अभी ऐसे भी अनेक ग्रन्थ हैं, जो देश-विदेश के प्राच्य-शास्त्र-भण्डारों में अप्रकाशित रूप में ही पड़े हुए अपने सूचीकरण अथवा प्रकाशनों की प्रतीक्षा में व्यग्र हैं।
सुप्रसिद्ध भाषाविद् डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार परवर्ती कालों में अपभ्रंश भी क्रमशः विकसित होती हुई स्थानीय प्रभावों के आधार पर निम्न भेदों में वर्गीकृत की गयी
(1) शौरसेनी-अपभ्रंश- जिससे हिन्दी, राजस्थानी, पंजाबी, गुजराती, पहाड़ी
प्राकृत-अपभ्रंश साहित्य-परम्परा :: 785
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