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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाणिनि के व्याकरण से सिद्ध नहीं है। उकार-बहुला-भाषा-सुप्रसिद्ध लक्षणशास्त्री भरतमुनि (दूसरी सदी ईस्वी) ने यद्यपि अपभ्रंश का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया, फिर भी उन्होंने संस्कृत एवं प्राकृत के साथसाथ देश्य भाषा का भी उल्लेख किया है और इसी भाषा में शबर, आभीर, चाण्डाल, द्रविड, ओड्र तथा अन्य वनेचरों की विभाषाओं की भी गिनती की है। अतः भरतमुनि का उक्त उल्लेख अपभ्रंश के अस्तित्व की सूचना देता है, क्योंकि आगे चलकर विविध देशों में विविध प्रकार की भाषाओं के प्रयोग किये जाने का उन्होंने उल्लेख किया है। उनके अनुसार हिमालय के पार्श्ववर्ती देशों तथा सिन्धु-सौवीर देशवासियों के लिए उकार-बहुला-भाषा का प्रयोग होना चाहिए। उकार-बहुल शब्द वस्तुतः अपभ्रंश की ही सर्वविदित प्रवृत्ति है। इससे अपभ्रंश तथा उसका प्रयोग करने वाले स्थलों की सूचना मिल जाती है। ___ यह नियम तो सर्वविदित ही है कि जब कोई भी बोली व्याकरण एवं साहित्य के नियमों में आबद्ध हो जाती है, तब वह काव्य-भाषा का रूप ग्रहण कर लेती है। उसका यही रूप परिनिष्ठित कहलाता है और वह काव्य के रम्य कलेवर में सुशोभित होने लगता है। प्रस्तुत अपभ्रंश-भाषा की भी यही स्थिति है। अपभ्रंश काव्य-रचना में निपुण राजा गुहसेन बलभी (गुजरात) के राजा धरसेन द्वितीय (678 ई. के लगभग) के एक दानपत्र से यह स्पष्ट हो जाता है कि उसके समय में संस्कृत एवं प्राकृत के साथ ही अपभ्रंश में भी काव्य-रचना करना एक विशिष्ट प्रतिभा का द्योतक प्रशंसनीय चिह्न माना जाने लगा था। उक्त दान-पत्र में राजा धरसेन ने अपने पिता गुहसेन (559-569 ई.) को संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश काव्य-रचना में अत्यन्त निपुण कहा है। इस तथ्य से भी विदित होता है कि अपभ्रंश-भाषा ईस्वी की छठी सदी तक व्याकरण एवं साहित्य के नियमों से परिनिष्ठित हो चुकी थी और वह काव्य-रचना का माध्यम बन चुकी थी। आचार्य भामह (छठी सदी का अन्तिम चरण) ने अपभ्रंश को काव्य-रचना के लिए अत्यन्त उपयोगी मानते हुए उसे संस्कृत एवं प्राकृत के बाद तृतीय स्थान दिया है। यद्यपि भामह ने यह सूचना नहीं दी कि अपभ्रंश किसकी बोली थी या किसे इसका प्रयोग करना चाहिए; फिर भी यह तो स्पष्ट है कि अपभ्रंश का अस्तित्व भामह के समय में आ चुका था अथवा अपभ्रंश ने काव्य का परिधान स्वीकार कर लिया था। महाकवि दण्डी ने अपभ्रंश काव्यों में प्रयुक्त होने वाले ओसरादि छन्दों का निर्देश करके अपभ्रंश-साहित्य के समृद्ध हो चुकने की सूचना भी दी है। इस प्रसंग में यहाँ 782 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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