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प्रियदर्शी अशोक के शिलालेखों के उक्त भाषा - भेदों में से पूर्वीय-भाषा का सम्बन्ध मागधी एवं अर्धमागधी के साथ है। मागधी प्राकृत का कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। तीर्थंकर महावीर के प्रवचनों का संकलन द्वादशांग - वाणी के नाम से प्रसिद्ध है, जिसकी भाषा अर्धमागधी थी, किन्तु उपलब्ध अर्धमागधी आगम - साहित्य की भाषा में भी प्राच्यकालीन अनेक प्रवृत्तियाँ दृष्टिगोचर नहीं होतीं ।
उत्तर - पश्चिम की बोली का सम्बन्ध शौरसेनी के साथ है, जिसका विकसित रूप दि. जैनागमों एवं सम्राट खारवेल के हाथीगुम्फा - शिलालेख तथा संस्कृत - नाटकों में उपलब्ध है । पश्चिमी बोली का सम्बन्ध पैशाची के साथ है, जिसका रूप महाकवि गुणाढ्य कृत 'वड्ढकहा' में सुरक्षित था, जो दुर्भाग्य से वर्तमान में अनुपलब्ध है, परन्तु प्रकारान्तर से वह अवश्य ही संस्कृत - नाटकों में प्रकीर्णक रूप में उपलब्ध है।
प्रथम प्राकृत के 'आर्ष' एवं 'शिलालेखीय ' -- ये दो भेद किए गये हैं। आर्षप्राकृत जैनागमों एवं बौद्धागमों की भाषा मानी गयी है, जिनकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है । शिलालेखीय प्राकृत के नमूने के रूप में ब्राह्मी एवं खरोष्ठी लिपियों में उपलब्ध शिलालेख हैं ।
द्वितीय- प्राकृत में वैयाकरणों द्वारा विवेचित महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी और पैशाचीभाषाओं का साहित्य प्रस्तुत होता है ।
उक्त महाराष्ट्री प्राकृत को द्वितीय - प्राकृत की साहित्यिक परिनिष्ठित भाषा माना गया है। महाकवि दण्डी ने महाराष्ट्री प्राकृत की पर्याप्त प्रशंसा की है । वररुचि के प्राकृत - प्रकाश' से ही इस तथ्य का समर्थन होता है कि महाराष्ट्रीय प्राकृत पर्याप्त समृद्ध रूप में वर्तमान थी । यह भाषा - शैली उस समय आविन्ध्य - हिमालय रूप भारत की राष्ट्रभाषा मानी जा सकती है । यद्यपि सुप्रसिद्ध प्राच्यभाषाविद् डॉ. मनमोहन घोष महाराष्ट्री और शौरसेनी को दो पृथक्-पृथक् भाषाएँ नहीं मानते, बल्कि एक ही भाषा की दो शैलियाँ मानते हैं। उनका कथन है कि " गद्य-शैली का नाम शौरसेनी और पद्य - शैली का नाम महाराष्ट्री है।" मूलतः तो यह सामान्य प्राकृत ही है और शैली - भेद से ही उसके दो भेद किये जा सकते हैं, किन्तु डॉ. घोष की यह मान्यता सर्वसम्मत नहीं है।
भाषा - शास्त्रियों के अनुसार मध्यकाल में जब संस्कृत धर्म और काव्य की भाषा बन गयी और बोलचाल की भाषा से बहुत दूर हट गयी, तब लोकपरक सुधारवादी क्रान्ति ने उक्त प्राकृत भाषा को अपने प्रचार-प्रसार का माध्यम बनाया। यह सत्य है कि प्रारम्भ में प्राकृत - साहित्य धार्मिक क्रान्ति से प्रादुर्भूत हुआ, तदनन्तर सौन्दर्य और अन्तस्-भावनाओं की अभिव्यंजना भी इस भाषा में की जाने लगी। अतएव रसमय साहित्य की रचनाएँ भी प्राकृत में की जाने लगीं। फलतः काव्य, नाटक एवं अन्य
प्राकृत- अपभ्रंश साहित्य - परम्परा :: 779
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