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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रूप से नहीं देता, फिर भी भक्त को सहज ही उनके गुणस्तवन से ऐसी शिक्षा या प्रेरणा मिल जाती है। इसे ही व्यवहार से ऐसा कहा जाता है कि हमें उनसे शिक्षा प्राप्त हुई। यह ठीक उसी प्रकार है, जिस प्रकार कि चन्द्रमा को शीतलताकारी और सन्तापहारी कहा जाता है। वस्तुतः चन्द्रमा जान-बूझकर किसी को शीतलता देता नहीं, उसका सन्ताप दूर करता नहीं, परन्तु जो व्यक्ति उसके आश्रय में जाते हैं, उन्हें अपनेआप शीतलता प्राप्त हो जाती है और उनका सन्ताप दूर हो जाता है। अत: ऐसा कहा जाता है कि चन्द्रमा शीतलतादायक और सन्तापहारक है। जिस प्रकार लोक में जिसे श्रेष्ठ खिलाड़ी बनना हो, उसे सर्वोत्कृष्ट खिलाड़ी के प्रति बहुमान आता है, श्रेष्ठ वक्ता बनना हो तो श्रेष्ठ वक्ता के प्रति बहुमान आता है, श्रेष्ठ लेखक बनना हो तो श्रेष्ठ लेखक के प्रति बहुमान आता है, बड़ा व्यापारी बनना हो तो बड़े व्यापारी के प्रति बहुमान आता है; उसी प्रकार जिसे पूर्ण शुद्ध-बुद्ध मुक्त परमात्मा बनना हो, उसे पूर्ण शुद्ध-बुद्ध मुक्त परमात्मा के प्रति सहज ही बहुमान आता है। यही भक्ति है। उक्त लौकिक उदाहरणों में तो कोई किसी रूप में हमारी सहायता कर भी सकता हो, किन्तु स्वयं के शुद्ध-बुद्ध परमात्मा बनने में परमात्मा हमारी किसी प्रकार से कोई सहायता नहीं करते हैं, कोई प्रेरणा भी नहीं देते हैं। हम तो स्वयं ही उनके उत्तम गुणों की स्मृति से अपने चित्त को पवित्र करते हैं। इस विषय में आचार्य समन्तभद्र का एक श्लोक बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है, जो इस प्रकार है "न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवैरे। तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनाति चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः।।" 14 अर्थ-हे जिनेन्द्र! तुम वीतराग हो, अत: पूजा से तुम्हें कुछ नहीं होता, तुम वीतद्वेष भी हो, अत: निन्दा से भी तुम्हें कुछ नहीं होता। तथापि तुम्हारे पवित्र गुणों की स्मृति हमारे चित्त को पापरूपी कालिमा से मुक्त कर पवित्र बना देती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि जैनधर्म के अनुसार भगवान पूर्णतः राग-द्वेष रहित (वीतराग) होते हैं। वे जगत् के कर्ता-धर्ता-हर्ता तो होते ही नहीं, प्रशंसा-निन्दा सुनकर किञ्चित् राग-द्वेष भी नहीं करते हैं। अतः उन्हें भक्तों का अनुग्रह और दुष्टों का निग्रह करने वाला कहना परमार्थतः सत्य नहीं है। जैन भक्ति-सिद्धान्त की एक और महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि वह किसी व्यक्ति-विशेष को अपना स्तुत्य नहीं मानती, अपितु वीतरागतादि गुणों को ही वास्तव में अपना स्तुत्य मानती है। सभी जैन भक्त कवियों ने इस प्रकार का भाव बारम्बार प्रकट किया है-प्राकृत-संस्कृत भाषाओं में भी और हिन्दी में भी। यथा भक्तिकाव्य :: 773 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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