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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मंगलाचरण, भक्ति, स्तोत्र, पूजा एवं विधान के अतिरिक्त जैनभक्तिकाव्य में 'स्तुति' या 'भजन' के रूप में भी हजारों पद आज उपलब्ध हैं। हिन्दी (ब्रज) भाषा में तो इन पदों का लेखन इतनी विपुल मात्रा में हुआ है कि उसका एक विशाल कोश-ग्रन्थ ही अलग से प्रकाशित किया जा सकता है। भावगाम्भीर्य और पदलालित्य-दोनों ही दृष्टियों से सभी समीक्षकों ने इन पदों की मुक्त-कण्ठ से सराहना की है। उदाहरणार्थ एक पद द्रष्टव्य है "निरखत जिनचन्द्र-वदन, स्व-पद-सुरुचि आई॥ प्रगटी निज आन की, पिछान ज्ञान-भान की, कला उद्योत होत काम-यामिनी पलाई॥ सास्वत आनन्द-स्वाद, पायो विनस्यो विसाद, आन में अनिष्ट इष्ट कल्पना नसाई। साधी निज साधकी, समाधि मोहव्याधि की, उपाधि को विराधि के आराधना सुहाई॥ धन दिन छिन आज सुगुन, चिन्ते जिनराज अबै, सुधरे सब काज 'दौल' अचल रिद्धि पाई॥" हिन्दी पदों के रचयिताओं में पं. बनारसीदास, भूधरदास, द्यानतराय, भगवतीदास, दौलतराम, भागचन्द आदि कवियों के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। ____ अब यहाँ संक्षेप में जैनधर्म के भक्ति सिद्धान्त को समझने का भी कुछ प्रयत्न किया जाता है : जैनधर्म के भक्ति सिद्धान्त को समझने के लिए निम्नलिखित चार विषयों का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक माना गया है 1. आराध्य का स्वरूप (स्तुत्य), 2. भक्त का स्वरूप (स्तोता), 3. भक्ति का स्वरूप (स्तुति), 4. भक्ति का फल (स्तुति-फल)। इन चारों के स्वरूप को संक्षेप में स्पष्ट करने वाला एक सारग्राही श्लोक आचार्य जिनसेन कृत 'जिनसहस्रनाम स्तोत्र' में उपलब्ध होता है, जो इस प्रकार है ___ "स्तुतिः पुण्य-गुणोत्कीर्तिः स्तोता भव्यः प्रसन्नधीः। निष्ठितार्थो भवांस्तुत्यः, फलं नैश्रेयसं सुखम् ॥10 अर्थ भगवान के पवित्र गुणों का कीर्तन करना 'स्तुति' है, प्रसन्न बुद्धि वाला भव्य जीव 'स्तोता' है, पूर्णतया कृतकृत्य वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा स्तुत्य' हैं और मोक्ष भक्तिकाव्य :: 771 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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