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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org भक्तिकाव्य 2. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुणवत्ता, परिमाण, विविधता आदि अनेक दृष्टियों से जैन वाड्मय का भारतीय वाङ्मय में विशिष्ट स्थान है। भक्तिकाव्य भी इसका अपवाद नहीं है। जैन कवियों ने प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में, सभी प्रकार की काव्यशैलियों में विपुल मात्रा में उच्चकोटि के भक्तिकाव्य को रचा, जिस सब का उल्लेख इस लघु निबन्ध में शक्य नहीं है । जैन भक्तिकाव्य साहित्य के लगभग आदिम काल से ही अनेकानेक रूपों में उपलब्ध है । यथा - मंगलाचरण, भक्ति, स्तुति, स्तोत्र, पूजा, विधान, आरती, पद, अष्टक, दशक, पच्चीसी, बत्तीसी, चालीसा, पचासा, शतक इत्यादि । इन सभी रूपों का मुख्य विषय अपने आराध्य की गुणस्तुतिरूप भक्ति ही है, अतः ये सभी वस्तुतः भक्तिकाव्य के विविध रूप हैं । इनमें सर्वप्रथम तो, जैन-ग्रन्थों के प्रारम्भ में मंगलाचरण हेतु रचे गए छन्द जैन भक्तिकाव्य के उत्कृष्ट उदाहरण माने जाने चाहिए । अत्यन्त सारगर्भित होने से ये छन्द बड़े ही महत्त्वपूर्ण हैं । कतिपय मंगलाचरण छन्द तो ऐसे हैं, जो आगे चलकर हैं। न केवल इनके भक्तिकाव्यों के, बल्कि दर्शन एवं न्याय शास्त्र के ग्रन्थों के भी मूलाधार बने हैं। इनमें 'षट्खण्डागम' और 'तत्त्वार्थसूत्र' के निम्नलिखित मंगलाचरण - छन्द विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं 1. “ णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं ।। “मोक्षमार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वन्दे तद्गुणलब्धये ।। "2 प्रो. वीरसागर जैन For Private And Personal Use Only उक्त दोनों मंगलाचरण-व -काव्य सम्पूर्ण जैन भक्तिकाव्य के मूल स्रोत तो प्रतीत होते ही हैं, जैन - भक्ति की समूची अवधारणा को स्पष्ट करने में भी बड़े समर्थ लगते हैं। इनके आधार पर जैन वाड्मय में अनेक ग्रन्थ लिखे गए। उदाहरणार्थ - 'तत्त्वार्थसूत्र' के मंगलाचरण को आधार बनाकर आचार्य समन्तभद्र ने 'आप्तमीमांसा', आचार्य अकलंक 766 :: जैनधर्म परिचय
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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